रविवार, 29 नवंबर 2009

''सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु था न आकाश, न मृत्यु थी और न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही एक था जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से साँस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ नहीं था।''- ऋग्वेद (नासदीयसूक्त) 10-129






विश् धातु से बना है विश्व। इसी धातु से विष्णु बनता है। ब्रह्मांड समूचे विश्व का दूसरा नाम है। इसमें जीव और निर्जीव दोनों सम्मिलित हैं। संसार जन्म और मृत्यु के क्रम को कहते हैं। जगत का अर्थ होता है संसार। यही सब कुछ सृष्टि है, जो बनती-बिगड़ती रहती है।



सृष्टि मूलतः संस्कृत का शब्द है। इसे संसार, विश्व, जगत या ब्रह्मांड भी कह सकते हैं। हिंदू धर्म के स्मृति के अंतर्गत आने वाले इतिहास ग्रंथ पुराणों अनुसार इस सृष्टि के सृष्टा ब्रह्मा हैं। इस सृष्टि का सृष्टिकाल पूर्ण होने पर यह अंतिम 'प्राकृत प्रलय' काल में ब्रह्मलीन हो जाएगी। फिर कुछ कल्प के बाद पुन: सृष्टि चक्र शुरू होगा।



इस सृष्टि में मनु के पुत्र मानव बसते हैं। सूर्य को सम्पूर्ण सृष्टि की आत्मा कहा गया है। सूर्य अनेक हैं। प्रलय के बाद सृष्टि और सृष्टि के बाद प्रलय प्रकृति का नियम है।



सृष्टि चक्र

इस सृष्टि में मनु के पुत्र मानव बसते हैं। सूर्य को सम्पूर्ण सृष्टि की आत्मा कहा गया है। सूर्य अनेक हैं। प्रलय के बाद सृष्टि और सृष्टि के बाद प्रलय प्रकृति का नियम है। ब्रह्मांड को प्रकृति या जड़ जगत कहा जा सकता है। इसे यहाँ हम समझने की दृष्टि से सृष्टि भी कह सकते हैं। इस ब्रह्मांड या सृष्टि में उत्पत्ति, पालन और प्रलय लगातार चलती रही है और अभी भी जारी है और जारी रहेगी। चार तरह की प्रलय है, नित्य, नैमित्तिक, द्विपार्ध और प्राकृत। प्राकृत में प्रकृति हो जाती है भस्मरूप। भस्मरूप बिखरकर अणुरूप हो जाता है।



श्रु‍ति के अंतर्गत आने वाले हिंदू धर्मग्रंथ वेद सृष्‍टि को प्रकृति, अविद्या या माया कहते हैं- इसका अर्थ अज्ञान या कल्पना नहीं। उपनिषद् कहते हैं कि ऐंद्रिक अनुभव एक प्रकार का भ्रम है। इसके समस्त विषय मिथ्या हैं।



जगत मिथ्‍या है: इसका अर्थ यह है कि जैसा हम देख रहे हैं जगत वैसा नहीं है इसीलिए इसे माया या मिथ्‍या कहते हैं अर्थात भ्रमपूर्ण। जब तक इस जगत को हम अपनी इंद्रियों से जानने का प्रयास करेंगे हमारे हाथ में कोई एक परिपूर्ण सत्य नहीं होगा।



जगत संबंधी सत्य को जानने के लिए ऐंद्रिक ज्ञान से उपजी भ्रांति को दूर करना जरूरी है। जैसा कि विज्ञान कहता है कि कुछ पशुओं को काला और सफेद रंग ही दिखाई देता है- वह जगत को काला और सफेद ही मानते होंगे। तब मनुष्य को जो दिखाई दे रहा है उसके सत्य होने का क्या प्रमाण?



यही कारण है कि प्रत्येक विचारक या धार्मिक व्यक्ति इस जगत को अपनी बुद्धि की को‍टियों के अनुसार परिभाषित करता है जो कि मिथ्याज्ञान है, क्योंकि जगत को विचार से नहीं जाना जा सकता।



हमारे ऋषियों ने विचार और चिंतन की शक्ति से ऊपर उठकर इस जगत को जाना और देखा। उन्होंने उसे वैसा ही कहा जैसा देखा और उन ऋषि-मुनियों में मतभेद नहीं था, क्योंकि मतभेद तो सिर्फ विचारवानों में ही होता है-अंतरज्ञानियों में नहीं।



इस जगत को अविद्या कहा गया है। अविद्या को ही वेदांती माया कहते हैं और माया को ही गीता में अपरा कहा गया है। इसे ही प्रकृति और सृष्‍टि कहते हैं। इस प्रकृति का स्थूल और तरल रूप ही जड़ और जल है। प्रकृति के सूक्ष्म रूप भी हैं- जैसे वायु, अग्नि और आकाश।



वेदांत के अनुसार जड़ और चेतन दो तत्व होते हैं। इसे ही गीता में अपरा और परा कहा गया है। इसे ही सांख्य योगी प्रकृति और पुरुष कहते हैं, यही जगत और आत्मा कहलाता है। दार्शनिक इन दो तत्वों को भिन्न-भिन्न नाम से परिभाषित करते हैं और इसी के अनेक भेद करते हैं।



वेद इस ब्रह्मांड को पंच कोषों वाला जानकर इसकी महिमा का वर्णन करते हैं। गीता इन्हीं पंच कोशों को आठ भागों में विभक्त कर इसकी महिमा का वर्णन करती है। स्मृति में वेदों की स्पष्ट व्याख्‍या है। पुराणों में वेदों की बातों को मिथकीय ‍विस्तार मिला। इस मिथकीय विस्तार से कहीं-कहीं भ्रम की उत्पत्ति होती है। पुराणकार वेदव्यास कहते हैं कि वेदों को ही प्रमाण मानना चाहिए।



सृष्टि को ब्रह्मांड कहा जाता है ब्रह्मांड अर्थात ब्रह्म के प्रभाव से उत्पन्न अंडाकार सृष्टि। पुराणों में ब्रह्मा को ब्रह्म (ईश्वर) का पुत्र माना जाता है इसीलिए उनके अनुसार ब्रह्मा द्वारा ही इस ब्रह्मांड की रचना मानी जाती है। समूचे ब्रह्मांड या सृष्टि में उत्पत्ति, पालन और प्रलय होता रहता है। ब्रह्मांड में इस वक्त भी कहीं न कहीं सृष्टि और प्रलय चल ही रहा है।



आगे हम जानेंगे कि वेद, पुराण और गीता के अनुसार 'सृष्‍टि की उत्पत्ति' कैसे हुई। इसका उत्थान या पालन कैसे हुआ और प्रलय तथा अंतिम प्रलय की धारणा क्या है। यह भी कि वेद, पुराण और गीता- तीनों की धारणा में मतभेद है या नहीं। इति।
 क्या एनी धर्मों की  भी ऐसी ही धरना है?

शनिवार, 28 नवंबर 2009

श्री श्री श्रीमद -भागवत -गीता





अध्याय प्रथम






‍गीता महत्व » श्रीमद्‍भगवद्‍गीता » अथ प्रथमोऽध्यायः- अर्जुनविषादयोग ( दोनों सेनाओं के प्रधान-प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन )





धृतराष्ट्र उवाच



धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।



मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥



भावार्थ : धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?॥1॥



संजय उवाच



दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।



आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌ ॥



भावार्थ : संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा॥2॥



पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌ ।



व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥



भावार्थ : हे आचार्य! आपके बुद्धिमान्‌ शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए॥3॥



अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।



युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥



धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌ ।



पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥



युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌ ।



सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥







भावार्थ : इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं॥4-6॥



अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।



नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥



भावार्थ : हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ॥7॥



भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।



अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥



भावार्थ : आप-द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा॥8॥



अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।



नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥



भावार्थ : और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं॥9॥



अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्‌ ।



पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्‌ ॥



भावार्थ : भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है॥10॥



अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।



भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥



भावार्थ : इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें॥11॥

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( दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का कथन )





तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।



सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान्‌ ॥



भावार्थ : कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया॥12॥



ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।



सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्‌ ॥



भावार्थ : इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ॥13॥



ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।



माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥



भावार्थ : इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए॥14॥



पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।



पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥



भावार्थ : श्रीकृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया॥15॥



अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।



नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥



भावार्थ : कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाए॥16॥



काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।



धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥



द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।



सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्‌ ॥



भावार्थ : श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु- इन सभी ने, हे राजन्‌! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाए॥17-18॥



स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्‌ ।



नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्‌ ॥



भावार्थ : और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात आपके पक्षवालों के हृदय विदीर्ण कर दिए॥19॥

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( अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग )





अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्‌ कपिध्वजः ।



प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥



हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।



अर्जुन उवाचः



सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥



भावार्थ : हे राजन्‌! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंधियों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए॥20-21॥



यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्‌ ।



कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥



भावार्थ : और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिए॥22॥



योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।



धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥



भावार्थ : दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आए हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा॥23॥



संजय उवाचः



एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।



सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्‌ ॥



भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्‌ ।



उवाच पार्थ पश्यैतान्‌ समवेतान्‌ कुरूनिति ॥



भावार्थ : संजय बोले- हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा कहे अनुसार महाराज श्रीकृष्णचंद्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा कर इस प्रकार कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देख॥24-25॥



तत्रापश्यत्स्थितान्‌ पार्थः पितृनथ पितामहान्‌ ।



आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥



श्वशुरान्‌ सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।



भावार्थ : इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा॥26 और 27वें का पूर्वार्ध॥



तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्‌ बन्धूनवस्थितान्‌ ॥



कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्‌ ।



भावार्थ : उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले। ॥27वें का उत्तरार्ध और 28वें का पूर्वार्ध॥

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(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन )





अर्जुन उवाच



दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌ ॥



सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।



वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥



भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है॥28वें का उत्तरार्ध और 29॥



गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।



न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥



भावार्थ : हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ॥30॥



निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।



न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥



भावार्थ : हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥31॥



न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।



किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥







भावार्थ : हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?॥32॥



येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।



त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥



भावार्थ : हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं॥33॥



आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।



मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥



भावार्थ : गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं ॥34॥



एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।



अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥



भावार्थ : हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?॥35॥



निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।



पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ हत्वैतानाततायिनः ॥



भावार्थ : हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा॥36॥



तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌ ।



स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥



भावार्थ : अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?॥37॥



यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।



कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्‌ ॥



कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌ ।



कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥



भावार्थ : यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?॥38-39॥

अथ द्वित्योअध्याये
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )


संजय उवाच

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌ ।

विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥

भावार्थ : संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा॥1॥

श्रीभगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌ ।

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।

भावार्थ : श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है॥2॥

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥

भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥3॥

अर्जुन उवाच

कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।

इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं॥4॥

गुरूनहत्वा हि महानुभावा-

ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।

हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव

भुंजीय भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌ ॥

भावार्थ : इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥5॥

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-

यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।

यानेव हत्वा न जिजीविषाम-

स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥

भावार्थ : हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं॥6॥

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः

पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे

शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥

भावार्थ : इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए॥7॥

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-

द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌ ।

अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-

राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌ ॥

भावार्थ : क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके॥8॥

संजय उवाच

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।

न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥

भावार्थ : संजय बोले- हे राजन्‌! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान्‌ से 'युद्ध नहीं करूँगा' यह स्पष्ट कहकर चुप हो गए॥9॥

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥

भावार्थ : हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले॥10॥
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( सांख्ययोग का विषय )


श्री भगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥

भावार्थ : श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते॥11॥

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥

भावार्थ : न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे॥12॥

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥

भावार्थ : जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।13॥

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥

भावार्थ : हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर॥14॥

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥

भावार्थ : क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है॥15॥

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥

भावार्थ : असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥16॥

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌ ।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥

भावार्थ : नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है॥17॥

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥

भावार्थ : इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर॥18॥

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌ ।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥

भावार्थ : जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है॥19॥

न जायते म्रियते वा कदाचि-

न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-

न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥

भावार्थ : यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥20॥

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌ ।

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌ ॥

भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?॥21॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-

न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥

भावार्थ : जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है॥22॥

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥

भावार्थ : इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता॥23॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥

भावार्थ : क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है॥24॥

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥॥

भावार्थ : यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे शोक करना उचित नहीं है॥25॥

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌ ।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥

भावार्थ : किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है॥26॥

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥

भावार्थ : क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है॥27॥

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।

अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?॥28॥

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-

माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।

आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति

श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌ ॥

भावार्थ : कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता॥29॥

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।

तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है॥30॥ =======================
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( क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण )


स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥

भावार्थ : तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥31॥

यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌ ।

सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ॥

भावार्थ : हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं॥32॥

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि ।

ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥

भावार्थ : किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ॥33॥

अकीर्तिं चापि भूतानि

कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌ ।

सम्भावितस्य चाकीर्ति-

र्मरणादतिरिच्यते ॥

भावार्थ : तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है॥34॥

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।

येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ ॥

भावार्थ : और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे॥35॥

अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः ।

निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌ ॥

भावार्थ : तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?॥36॥

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌ ।

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥

भावार्थ : या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा॥37॥

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥

भावार्थ : जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥38॥
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( कर्मयोग का विषय )


एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।

बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥

भावार्थ : हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के (अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखें।) विषय में सुन- जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥39॥

यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌ ॥

भावार्थ : इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥40॥

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।

बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं॥41॥

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।

वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌ ।

क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ ।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात्‌ दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती॥42-44॥

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो॥45॥

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥

भावार्थ : सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है॥46॥

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥

भावार्थ : तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥47॥

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।

सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥

भावार्थ : हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है।) ही योग कहलाता है॥48॥

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥

भावार्थ : इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात्‌ बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं॥49॥

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌ ॥

भावार्थ : समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबंध से छूटने का उपाय है॥50॥

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌ ॥

भावार्थ : क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं॥51॥

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥

भावार्थ : जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भलीभाँति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा॥52॥

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥

भावार्थ : भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा॥53॥
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( स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा )


अर्जुन उवाच

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌ ॥

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?॥54॥

श्रीभगवानुवाच

प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌ ।

आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥

भावार्थ : श्री भगवान्‌ बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है॥55॥

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥

भावार्थ : दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है॥56॥

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।

नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

भावार्थ : जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है॥57॥

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

भावार्थ : और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)॥58॥

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥

भावार्थ : इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है॥59॥

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात्‌ हर लेती हैं॥60॥

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

भावार्थ : इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥61॥

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।

संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥

भावार्थ : विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है॥62॥

क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥

भावार्थ : क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥63॥

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ ।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥

भावार्थ : परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥64॥

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥

भावार्थ : अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है॥65॥

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।

न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥

भावार्थ : न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?॥66॥

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।

तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥

भावार्थ : क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥67॥

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

भावार्थ : इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है॥68॥

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥

भावार्थ : सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है॥69॥

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-

समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ ।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे

स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥

भावार्थ : जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥70॥

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।

निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥

भावार्थ : जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है॥71॥

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।

स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है॥72॥


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥2॥

गीता

अर्जुनविषादयोग- नामक पहला अध्याय


01-11 दोनों सेनाओं के प्रधान-प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन।



12-19 दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का कथन



20-27 अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग



28-47 मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन







सांख्ययोग-नामक दूसरा अध्याय

01-10 अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद



11-30 सांख्ययोग का विषय



31-38 क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण



39-53 कर्मयोग का विषय



54-72 स्थिर बुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा







कर्मयोग- नामक तीसरा अध्याय

01-08 ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण



09-16 यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता का निरूपण



17-24 ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता



25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा



36-43 काम के निरोध का विषय







ज्ञानकर्मसंन्यासयोग- नामक चौथा अध्याय

01-18 सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय



19-23 योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा



24-32 फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन



33-42 ज्ञान की महिमा







कर्मसंन्यासयोग- नामक पाँचवाँ अध्याय

01-06 सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय



07-12 सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा



13-26 ज्ञानयोग का विषय



27-29 भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन







आत्मसंयमयोग- नामक छठा अध्याय

01-04 कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण



05-10 आत्म-उद्धार के लिए प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण



11-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय



33-36 मन के निग्रह का विषय



37-47 योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा







ज्ञानविज्ञानयोग- नामक सातवाँ अध्याय

01-07 विज्ञान सहित ज्ञान का विषय



08-12 संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन



13-19 आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा



20-23 अन्य देवताओं की उपासना का विषय



24-30 भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा







अक्षरब्रह्मयोग- नामक आठवाँ अध्याय

01-07 ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर



08-22 भक्ति योग का विषय



23-28 शुक्ल और कृष्ण मार्ग का विषय







राजविद्याराजगुह्ययोग- नामक नौवाँ अध्याय

01-06 प्रभावसहित ज्ञान का विषय



07-10 जगत की उत्पत्ति का विषय



11-15 भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा और देवी प्रकृति वालों के भगवद् भजन का प्रकार



16-19 सर्वात्म रूप से प्रभाव सहित भगवान के स्वरूप का वर्णन



20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फल



26-34 निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा

अगले नौ अध्याय

श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय

1. अर्जुनविषादयोग 2. सांख्ययोग 3. कर्मयोग

4. ज्ञानकर्मसंन्यासयोग 5. कर्मसंन्यासयोग 6. आत्मसंयमयोग

7. ज्ञानविज्ञानयोग 8. अक्षरब्रह्मयोग 9. राजविद्याराजगुह्ययोग

10. विभूतियोग 11. विश्वरूपदर्शनयोग 12. भक्तियोग

13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग 14. गुणत्रयविभागयोग 15. पुरुषोत्तमयोग

16. दैवासुरसम्पद्विभागयोग 17. श्रद्धात्रयविभागयोग 18. मोक्षसंन्यासयोग
कल्याण की इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है कि मोह का त्याग कर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बच्चों को अर्थ और भाव के साथ श्रीगीताजी का अध्ययन कराएँ।




स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान की आज्ञानुसार साधन करने में समर्थ हो जाएँ क्योंकि अतिदुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी दु:खमूलक क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है।



गीताजी का पाठ आरंभ करने से पूर्व निम्न श्लोक को भावार्थ सहित पढ़कर श्रीहरिविष्णु का ध्यान करें--



अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्यनाभं सुरेशं

विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं

वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। भावार्थ : जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो ‍देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।



यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै-

र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।

ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो-

यस्तानं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।। भावार्थ : ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्‍गण दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगीजन ध्यान में स्थित तद्‍गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुर गण (कोई भी) जिनके अन्त को नहीं जानते, उन (परमपुरुष नारायण) देव के लिए मेरा नमस्कार है।



श्रीमद्‍भगवद्‍गीता का पाठ करें

क़ुरबानी की ईद |

ईद उल अजहा पर कुर्बानी दी जाती है। यह एक जरिया है जिससे बंदा अल्लाह की रजा हासिल करता है। बेशक अल्लाह को कुर्बानी का गोश्त नहीं पहुँचता है, बल्कि वह तो केवल कुर्बानी के पीछे बंदों की नीयत को देखता है। अल्लाह को पसंद है कि बंदा उसकी राह में अपना हलाल तरीके से कमाया हुआ धन खर्च करे। कुर्बानी का सिलसिला ईद के दिन को मिलाकर तीन दिनों तक चलता है।



क्या है कुर्बानी का इतिहास- इब्रा‍हीम अलैय सलाम एक पैगंबर गुजरे हैं, जिन्हें ख्वाब में अल्लाह का हुक्म हुआ कि वे अपने प्यारे बेटे इस्माईल (जो बाद में पैगंबर हुए) को अल्लाह की राह में कुर्बान कर दें। यह इब्राहीम अलैय सलाम के लिए एक इम्तिहान था, जिसमें एक तरफ थी अपने बेटे से मुहब्बत और एक तरफ था अल्लाह का हुक्म। इब्राहीम अलैय सलाम ने सिर्फ और सिर्फ अल्लाह के हुक्म को पूरा किया और अल्लाह को राजी करने की नीयत से अपने लख्ते जिगर इस्माईल अलैय सलाम की कुर्बानी देने को तैयार हो गए।



अल्लाह रहीमो करीम है और वह तो दिल के हाल जानता है। जैसे ही इब्राहीम अलैय सलाम छुरी लेकर अपने बेटे को कुर्बान करने लगे, वैसे ही फरिश्तों के सरदार जिब्रील अमीन ने बिजली की तेजी से इस्माईल अलैय सलाम को छुरी के नीचे से हटाकर उनकी जगह एक मेमने को रख दिया। इस तरह इब्राहीम अलैय सलाम के हाथों मेमने के जिब्हा होने के साथ पहली कुर्बानी हुई। इसके बाद जिब्रील अमीन ने इब्राहीम अलैय सलाम को खुशखबरी सुनाई कि अल्लाह ने आपकी कुर्बानी कुबूल कर ली है और अल्लाह आपकी कुर्बानी से राजी है।





NDकुर्बानी के पीछे मकसद- बेशक अल्लाह दिलों के हाल जानता है और वह खूब समझता है कि बंदा जो कुर्बानी दे रहा है, उसके पीछे उसकी क्या नीयत है। जब बंदा अल्लाह का हुक्म मानकर महज अल्लाह की रजा के लिए कुर्बानी करेगा तो यकीनन वह अल्लाह की रजा हासिल करेगा, लेकिन अगर कुर्बानी करने में दिखावा या तकब्बुर आ गया तो उसका सवाब जाता रहेगा। कुर्बानी इज्जत के लिए नहीं की जाए, बल्कि इसे अल्लाह की इबादत समझकर किया जाए। अल्लाह हमें और आपको कहने से ज्यादा अमल की तौफीक दे।



कौन करें कुर्बानी- शरीयत के मुताबिक कुर्बानी हर उस औरत और मर्द के लिए वाजिब है, जिसके पास 13 हजार रुपए या उसके बराबर सोना और चाँदी या तीनों (रुपया, सोना और चाँदी) मिलाकर भी 13 हजार रुपए के बराबर है।



वाजिब है कुर्बानी देना- ईद उल अजहा पर कुर्बानी देना वाजिब है। वाजिब का मुकाम फर्ज से ठीक नीचे है। अगर साहिबे हैसियत होते हुए भी किसी शख्स ने कुर्बानी नहीं दी तो वह गुनाहगार होगा। जरूरी नहीं कि कुर्बानी किसी महँगे जानदार की की जाए। हर जगह जामतखानों में कुर्बानी के हिस्से होते हैं, आप उसमें भी हिस्सेदार बन सकते हैं।



अगर किसी शख्स ने साहिबे हैसियत होते हुए कई सालों से कुर्बानी नहीं दी है तो वह साल के बीच में सदका करके इसे अदा कर सकता है। सदका एक बार में न करके थोड़ा-थोड़ा भी दिया जा सकता है। सदके के जरिये से ही मरहूमों की रूह को सवाब पहुँचाया जा सकता है।



कुर्बानी के तीन हिस्से- कुर्बानी के गोश्त के तीन हिस्से करने की शरीयत में सलाह है। एक हिस्सा गरीबों में तकसीम किया जाए, दूसरा हिस्सा अपने दोस्त अहबाब के लिए इस्तेमाल किया जाए और तीसरा हिस्सा अपने घर में इस्तेमाल किया जाए। तीन हिस्से करना जरूरी नहीं है, अगर खानदान बड़ा है तो उसमें दो हिस्से या ज्यादा भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं। गरीबों में गोश्त तकसीम करना मुफीद है।
 

देखें: शिल्पा शेट्टी बन गई मिसेज राज कुंद्रा


कृपया ध्यान दें राज कुंद्रा (तुला)राशि
शिल्पा की( कुम्भ )राशी
सीता राम जेसी जोड़ी |क्या इस नाम राशी के जीवन में सुख श्री राम सीता जेसा होगा? शोध का विषय है  - ईश्वर लम्बी उम्र दे |













अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी ने लंदन स्थित व्यवसायी राज कुंद्रा के साथ शादी रचाई।

महाराष्ट्र के इस पर्वतीय शहर में एक पारिवारिक समारोह में बॉलीवुड अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी ने लंदन स्थित व्यवसायी राज कुंद्रा के साथ शादी रचाई। इस अवसर पर शिल्पा ने लाल साड़ी पहन रखी थी और हीरों और पन्नों से जड़ा हार पहन रखा था।
ऐसा क्यों होता है कि कोई दो ज्योतिषी एक ही कुंडली पर अलग अलग व्याख्या देते हैं।






और ज्योतिषियों की सलाह से कराया गया विवाह भी क्यों असफल हो जाता है।





यह दो प्रश्न लोगों द्वारा सबसे ज्यादा पूछे जाने वाले प्रश्न हैं जिन पर कौतूहलता बनी रहती है। पहले सवाल का जवाब देना आसान है, ऐसा नहीं है कि कुंडलियों को मिलाने का कोई निश्चित प्रारूप है। प्रत्येक ज्योतिषी का अपना प्रारूप, प्राथमिकताएं, निजी धारणा, पसन्द नापसन्द है जो उनके निर्णय को प्रभावित करती है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अलग अलग ज्योतिषियों की राय अलग अलग क्यों होती है।



दरअसल एकसमान प्रारूप की आवश्यकता का समय आ गया है। उन सभी प्रक्रियाओं में जिनमें विज्ञान लागू होता है इस तरह के प्रारूप बनाए गए हैं जिनमें सख्त दिशानिर्देश भी दिए गए हैं।



जवाब के लिहाज से दूसरा प्रश्न ज्यादा कठिन है। ज्योतिष के द्वारा विवाह के जोड़े बनाए जाने में तीन कारक शामिल हैं- पहला उपभोक्ता, दूसरा ज्योतिषी और तीसरा ज्योतिष। कुछ दशक पहले तक माता-पिता अपने बच्चों को एक ही जाति और समान सामाजिक स्तर वाले परिवार में शादी करने पर जोर देते थे। उनकी प्राथमिकता मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ होने के साथ अच्छी आदतें भी होता था।



लड़के के माता-पिता वधू से खुशहाली लाने के साथ उसके द्वारा घर-परिवार का आदर सम्मान, देखभाल, और पति के प्रति वफादारी की उम्मीद करते थे। वहीं वधू के माता-पिता उससे उनकी पुत्री को अच्छा और सुरक्षित जीवन देने के साथ परिवार का सहयोग करने की आशा करते थे। अत: इन्हीं आशाओं को ध्यान में रखकर ज्योतिष के नियम बनाए गए।



हालांकि आज स्थिति बदल गई है। जहां जाति को आज भी ध्यान में रखा जाता है, वहीं हर प्रक्रिया के पीछे पैसा प्राथमिकता बन गया है, शादी विवाह को भी इससे हटकर नहीं देखा जा सकता। आज लड़की के माता-पिता सोचते हैं कि उनका होने वाला दामाद अमेरिका में काम करता हो और उसकी तनख्वाह डॉलर में हो। अक्सर परिवार के लोग बच्चों के सामाजिक स्तर, और उनके लक्ष्य को ध्यान में रखकर भी विवाह करवा देते हैं। उन्हें लगता है कि इससे उनके जीवन में साम्य बना रहेगा।





कई बार ऐसा भी होता है कि लोग ज्योतिषी को कुंडली दिखाकर और सभी जानकारियां देकर यह कहते हैं कि वे इस रिश्ते के लिए तैयार हैं और वे उनकी हामी के बिना भी विवाह कर सकते हैं। यदि ज्योतिषी इसके लिए न भी करता है तो भी वे बार बार उनके समक्ष तब तक यह प्रस्ताव रखते हैं जब तक कि वो तैयार न हो जाए। आजकल एक ज्योतिषी के लिए सबसे अच्छा करार वो है जिसमें उसे अच्छी रकम मिले।



कुछ ज्योतिषी मानते हैं कि किसी विशेष जोड़ी को न कहने से उनके माता पिता को बहुत दुख पहुंचेगा जो यह चाहते हैं कि उनके पुत्र या पुत्री का विवाह उसी व्यक्ति से हो।





इन ज्योतिषियों के लिए किन्हीं दो कुंडलियों में केवल 50 फीसदी ही साम्य होता है।



एक ज्योतिषी का कहना है कि आजकल कुंडलियों में 30 फीसदी का मिलान काफी होता है। कुछ वर्ष पहले तक यह मिलान यदि 70 फीसदी भी होता था तो इसे बुरा कहा जाता था।



जहां तक ज्योतिष का सवाल है, तो ऐसे नियमों को अपनाने का सबसे बड़ा कारक यह है कि यह नियम आधुनिक समाज को ध्यान में रखकर कई हजार साल पहले बनाए गए थे। हालांकि वैज्ञानिक रूप से बनाए गए नियमों को बदला नहीं जा सकता लेकिन लोगों के लिए उनका उपयोग बदल गया है। यदि पुराने तरीके स्पष्ट रूप से गलत दिशानिर्देश दे रहे हैं तो फिर इस आधुनिक सोच का क्या मतलब है?



आधुनिक समाज की ओर देखने पर हमें पता चलता है कि पश्चिम में तलाक दर 50-60 फीसदी है। भारत में भी तलाक दर तेजी से बढ़ती जा रही है।



आज की स्वतंत्र नारी, शादी के लिए अपने साथी से सुरक्षा के साथ साथ आर्थिक समर्थन भी चाहती है। इसी प्रकार लड़के भी कमाने वाली लड़की से विवाह करना चाहते हैं। इस वजह से उनमें मानसिक स्तर और अपने अहम को लेकर टकराव हो सकता है। इसके अलावा रहन सहन के तरीके, उद्देश्य, जीवन का लक्ष्य, बच्चों और परिवार के लिए नजरिया भी तकरार का कारण बन सकता है। जिससे आगे चलकर विवाह टूट भी जाता है।



इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने एक ऐसी प्रणाली को विकसित करने की कोशिश की है जिसके तहत पूरे क्षेत्र की तुलना पांच पंखुड़ियों में करनी होगी। पहला पेटल मंगल की स्थिति के साथ तुलनात्मक है। यह ज्योतिष में बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि मंगल लड़ाई, झगड़ा, अलगाव वाला ग्रह है।





दूसरी पंखुड़ी चन्द्र राशि के तुलनात्मक है। चन्द्रमा वह ग्रह है जोकि दिमाग, मानसिक स्थिति, प्रोत्साहन, भय और डर, रचनात्मकता, स्मरण और महसूस करने से संबंधित होता है। अत: इनमें कुछ साम्य होना चाहिए जिससे विवाह सफल हो सके।



इस पंखुड़ी में तीन इकाईयां हैं, रासि, रसि और वस्य। तीसरी पंखुड़ी नक्षत्र पर आधारित है। राशिचक्र को 12 राशियों और 27 नक्षत्रों में बांटा गया है। चन्द्रमा की स्थिति यह दर्शाती है कि किस नक्षत्र का है। नक्षत्र व्यक्ति के भौतिक, मानसिक और आत्मिक कारकों पर निर्भर करते हैं। इस पंखुड़ी में आठ कारक हैं, वेधा, दीना, स्त्री, दीर्घ, महेन्द्र, योनि, रज्जु, नाड़ी और गण।





चौथी पंखुड़ी कर्म को दर्शाती है। और पांचवी ग्रहों के बीच साम्य को।





इन सभी पंखुड़ियों के कारकों का गहन अध्ययन करना चाहिए। यह आधुनिक ज्योतिषी का कर्तव्य है कि इस बात कि व्याख्या दे कि हर विवाह के अभिसारी और अपसारी क्षेत्र होते हैं। केवल वह ही यह बता सकता है कि कुंडली में अपसारी क्षेत्र की तुलना में अभिसारी क्षेत्र कितना है। एक बार विचलन का क्षेत्र बता देने पर यह बात उस जोड़े पर निर्भर करती है कि वे विवाह करते हैं या नहीं। इसमें ज्योतिषी निर्णय नहीं लेता है बल्कि वे स्वयं निर्णय लेते हैं। वेदिक ज्योतिष आधुनिक विवाह संस्कार के लिए सही और गलत का अंतर बताते हैं लेकिन यह नहीं बताते हैं कि आप किससे विवाह करें।










शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

muslim -sikh- isai

इस्लाम धर्म (الإسلام) ईसाई धर्म के बाद अनुयाइयों के आधार पर दुनिया का दूसरा सब से बड़ा धर्म है। इस्लाम शब्द अरबी भाषा का शब्द है जिसका मूल शब्द सल्लमा है जिस की दो परिभाषाएं हैं (१) अमन और शांति (२) आत्मसमर्पण।


ईस्लाम एकेश्वरवाद को मानता है। इसके अनुयायियों का प्रमुख विश्वास है कि ईश्वर सिर्फ़ एक है और पूरी सृष्टि में सिर्फ़ वह ही महिमा (इबादत) के लायक है, और सृष्टि में हर चीज़, ज़िंदा और बेजान, दृश्य और अदृश्य उसकी इच्छा के सामने आत्मसमर्पित और शांत है। इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक का नाम क़ुरआन है। इसके अनुयायियों को अरबी में मुस्लिम कहा जाता है।

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सिख धर्म पंद्रहवीं शताब्दी में उपजा और सत्रहवीं शताब्दी में धर्म रूप में परिवर्तित हुआ था. उह उत्तर भारत में पंजाब राज्य में जन्मा था. इसके प्रथम गुरु थे गुरु नानक देव जी, और फ़िर बाद में नौ और गुरु हुए. सिख धर्म: सिख एक ही ईश्वर को मानते हैं, पर उसके पास जाने के लिये दस गुरुओं की सहायता को महत्त्वपूर्ण समझते हैं । इनका धर्मग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब है । अधिकांश सिख पंजाब (भारत) में रहते हैं । सिख एक ही ईश्वर को मानते हैं, जिसे वे एक-ओंकार कहते हैं । उनका मानना है कि ईश्वर अकाल और निरंकार है । सिख शब्द संस्कृत शब्द शिष्य से निकला है, जिसका अर्थ है शिष्य या अनुयायी. सिख धर्म विश्व का नौवां बड्क्षा धर्म है। इसे पाँचवां संगठित धर्म भी माना जाता है।


गुरु ग्रंथ साहिब सिख धर्म का प्रमुख धर्मग्रन्थ है। इसका संपादन सिख धर्म के पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी ने किया। गुरु ग्रन्थ साहिब जी का पहला प्रकाश 16 अगस्त 1604 को हरिमंदिर साहिब अमृतसर में हुआ। 1705 में दमदमा साहिब में दशमेश पिता गुरु गोविंद सिंह जी ने गुरु तेगबहादुर जी के 116 शब्द जोड़कर इसको पूर्ण किया, इसमे कुल 1430 सफे हैं

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ईसाई धर्म या मसीही धर्म दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक सांप्रदाय है । ये ईसा मसीह के उपदेशों पर आधारित है । इसका धर्मग्रन्थ बाइबिल है । ईसाई एक ही ईश्वर को मानते हैं । लेकिन वो ईश्वर को त्रीएक के रूप में समझते हैं -- परमपिता परमेश्वर, उनके पुत्र ईसा मसीह (यीशु मसीह) और पवित्र आत्मा।


ईसा मसीह (यीशु) एक यहूदी थे जो इस्राइल के गाँव बेत्लहम में जन्मे थे (४ ईसापूर्व)। ईसाई मानते हैं की उनकी माता मारिया (मरियम) सदा-कुमारी (वर्जिन) थीं । ईसा उनके गर्भ में परमपिता परमेश्वर की कृपा से चमत्कारिक रूप से आये थे । ईसा के बारे में यहूदी नबियों ने भविष्यवाणी की थी कि एक मसीहा (अर्थात "राजा" या तारनहार) जन्म लेगा । कुछ लोग ये मानते हैं कि ईसा हिन्दुस्तान भी आये थे । बाद में ईसा ने इस्राइल में यहूदियों के बीच प्रेम का संदेश सुनाया , और कहा कि वो ही ईश्वर के पुत्र हैं ।

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हिन्दू धर्म                                                                                    हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) विश्व के सभी बड़े धर्मों में सबसे पुराना धर्म है । ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, साम्प्रदाय, और दर्शन समेटे हुए है । ये दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मज़हब है, पर इसके ज़्यादातर उपासक भारत में हैं। नेपाल विश्व का अकेला देश है जिसका राजधर्म हिन्दू धर्म है । हालाँकि इसमें कई देवी-देवतओं की पूजा की जाती है, लेकिन असल में ये एकेश्वरवादी धर्म है। हिन्दी में इस धर्म को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इंडोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है।





     

sti nari

पत्नी की सत्यनिष्ठा पति में होने को हिन्दू धर्म में आदर्श के रूप में देखा गया है । स्त्री संतान को जन्म देती है । बालक/बालिका को प्रारम्भिक संस्कार अपनी माता से ही मिलता है । यदि स्त्री स्वेच्छाचारिणी होगी तो उसकी संतान में भी उस दुर्गुण के आने की अत्यधिक सम्भावना रहेगी । पुरुष संतति-पालन का भार उठाने को प्राय: तभी तैयार होगा जब उसे विश्वास होगा कि उसकी पत्नी के उदर से उत्पन्न संतान का वास्तवि पिता वही है । पति की मृत्यु होने पर भी उत्तम संस्कार वाली स्त्री संतान के सहारे अपना बुढ़ापा काट सकती है । पश्चिम के आदर्शविहीन समाज में स्त्रियाँ अपना बुढ़ापा पति के अभाव में अनाथाश्रम में काटती हैं

hnuman chalisa

।।दोहा।। श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार



बरनौ रघुवर बिमल जसु , जो दायक फल चारि


बुद्धिहीन तनु जानि के , सुमिरौ पवन कुमार


बल बुद्धि विद्या देहु मोहि हरहु कलेश विकार



जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीस तिंहु लोक उजागर


रामदूत अतुलित बल धामा अंजनि पुत्र पवन सुत नामा



महाबीर बिक्रम बजरंगी कुमति निवार सुमति के संगी


कंचन बरन बिराज सुबेसा, कान्हन कुण्डल कुंचित केसा



हाथ ब्रज औ ध्वजा विराजे कान्धे मूंज जनेऊ साजे


शंकर सुवन केसरी नन्दन तेज प्रताप महा जग बन्दन



विद्यावान गुनी अति चातुर राम काज करिबे को आतुर


प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया रामलखन सीता मन बसिया



सूक्ष्म रूप धरि सियंहि दिखावा बिकट रूप धरि लंक जरावा


भीम रूप धरि असुर संहारे रामचन्द्र के काज सवारे



लाये सजीवन लखन जियाये श्री रघुबीर हरषि उर लाये


रघुपति कीन्हि बहुत बड़ाई तुम मम प्रिय भरत सम भाई



सहस बदन तुम्हरो जस गावें अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावें


सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा नारद सारद सहित अहीसा



जम कुबेर दिगपाल कहाँ ते कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते


तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा राम मिलाय राज पद दीन्हा



तुम्हरो मन्त्र विभीषन माना लंकेश्वर भये सब जग जाना


जुग सहस्र जोजन पर भानु लील्यो ताहि मधुर फल जानु



प्रभु मुद्रिका मेलि मुख मांहि जलधि लाँघ गये अचरज नाहिं


दुर्गम काज जगत के जेते सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते



राम दुवारे तुम रखवारे होत न आज्ञा बिनु पैसारे


सब सुख लहे तुम्हारी सरना तुम रक्षक काहें को डरना



आपन तेज सम्हारो आपे तीनों लोक हाँक ते काँपे


भूत पिशाच निकट नहीं आवें महाबीर जब नाम सुनावें



नासे रोग हरे सब पीरा जपत निरंतर हनुमत बीरा


संकट ते हनुमान छुड़ावें मन क्रम बचन ध्यान जो लावें



सब पर राम तपस्वी राजा तिनके काज सकल तुम साजा


और मनोरथ जो कोई लावे सोई अमित जीवन फल पावे



चारों जुग परताप तुम्हारा है परसिद्ध जगत उजियारा


राम रसायन तुम्हरे पासा सदा रहो रघुपति के दासा



तुम्हरे भजन राम को पावें जनम जनम के दुख बिसरावें


अन्त काल रघुबर पुर जाई जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई



और देवता चित्त न धरई हनुमत सेई सर्व सुख करई


संकट कटे मिटे सब पीरा जपत निरन्तर हनुमत बलबीरा



जय जय जय हनुमान गोसाईं कृपा करो गुरुदेव की नाईं


जो सत बार पाठ कर कोई छूटई बन्दि महासुख होई



जो यह पाठ पढे हनुमान चालीसा होय सिद्धि साखी गौरीसा


तुलसीदास सदा हरि चेरा कीजै नाथ हृदय मँह डेरा



।।दोहा।। पवन तनय संकट हरन मंगल मूरति रूप


राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप







हनुमान चालीसा के पाठ आनलाइन...14:09 ...श्री दुर्ग्याणा मंदिर के वेद कथा भवन में आज होने जा रहे श्री हनुमान चालीसा के पाठ का नजारा मंदिर की बेबसाइट दुर्ग्याणामंदिर डॉट कॉम पर विश्व में कहीं भी देखा जा सकेगा। 1100 परिवार एक साथ दो घंटे तक श्री हनुमान चालीसा का पाठ करेंगे।...पाठ के बेहतर प्रसारण के

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हनुमान चालीसा का राष्ट्रव्यापी पाठ

हनुमान चालीसा के पाठ का आयोजन किया जा रहा है। कार्यक्रम के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुरेश गोयल का कहना है कि... कार्यक्रम के प्रेरणास्रोत हैं, का ३५ मिनट की अवधि का व्याख्यान होगा, जिसमें हनुमान चालीसा और जीवन के... स्थानीय टीवी चैनलों पर देखकर महापाठ कर सकते हैं। श्री गोयल ने बताया कि कार्यक्रम एक घंटे का रहेगा।

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विश्वशांति के लिए हनुमान चालीसा का पाठ

मंच ने सवा करोड़ हनुमान चालीसा पाठ का आयोजन एक साथ एक ही समय पर देश के अलग अलग प्रांतों में किया। इस कार्यक्रम के तहत यह पाठ शुक्रवार को हल्दीबाड़ी के श्री सत्य नारायण गौशाला में पूरी भक्ति के साथ किया... पुरुषों ने इस शांति पाठ में हिस्सा लिया और एक साथ एक स्वर में हनुमान पाठ किया। इस दौरान श्री राम के

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हनुमान चालीसा / तुलसीदास

आपका पासवर्ड...इस कंप्यूटर पर मेरी लॉग-इन सूचना याद रखें।...हनुमान चालीसा...विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से...यहां जाईयें...श्री गुरू चरण सरोज रज निज मन मुकुरु सुधारि ...बरनउं रघुबर बिमल जसु, जो... हनुमान चालीसा ...होय सिद्ध साखी गौरीसा ...तुलसीदास सदा हरि चेरा ...कीजै नाथ ह्रदय महं डेरा ...पवन तनय



श्री हनुमान जयंती

धर्म चैनल्स...श्री हनुमान जयंती...श्री हनुमानजी के जन्म की तिथि के संबंध में दो मत प्रचलित हैं... करना चाहिए अथवा हनुमान चालीसा का पाठ कर श्रीराम जानकी एवं हनुमान जी का भजन कीर्तन करना चाहिए। शाम... सहित हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित कर विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए। नैवे में घृतमिश्रित चूरमा अथवा घी

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हिन्दुत्व के तत्वFeatures of Hinduism हिन्दुत्व एकत्व का दर्शन है



हिन्दुत्व का लक्ष्य पुरुषार्थ है और मध्य मार्ग को सर्वोत्तम माना गया है



हिन्दुओं के पर्व और त्योहार खुशियों से जुड़े हैं



सबसे बड़ा मंत्र गायत्री मंत्र



आत्मा अजर-अमर है



हिन्दू दृष्टि समतावादी एवं समन्वयवादी



पर्यावरण की रक्षा को उच्च प्राथमिकता



हिन्दुत्व का वास हिन्दू के मन, संस्कार और परम्पराओं में



सती का अर्थ पति के प्रति सत्यनिष्ठा है



स्त्री आदरणीय है



प्राणि-सेवा ही परमात्मा की सेवा है



क्रिया की प्रतिक्रिया होती है



हिन्दुओं में कोई पैगम्बर नहीं है



हिन्दुत्व का लक्ष्य स्वर्ग-नरक से ऊपर



ईश्वर से डरें नहीं, प्रेम करें और प्रेरणा लें



ब्रह्म या परम तत्त्व सर्वव्यापी है



ईश्वर एक नाम अनेक

बुधवार, 25 नवंबर 2009

कलयुग में प्रभु प्रेम

             कलयुग के भगत और भगवान
यह घोर कलियुग ही है कि उज्जैन के एक मंदिर को गिरवी रख दिया गया है। मामला अवंतिपुरा गली नंबर 4 का है। यहाँ वामन भगवान मंदिर, वामनेश्वर महादेव मंदिर और बजरंगबली मंदिर बने हुए हैं। क्षेत्र के नागरिकों ने संभागायुक्त को शिकायत की है कि मंदिर के पुजारी ने मंदिर को गिरवी रखकर राज्य सहकारी आवास संघ से 80 हजार रु. कर्ज ले लिया। यह राशि अब ब्याज समेत बढ़कर 7 लाख 44 हजार 212 हो गई है।



जाँच में पता चला है कि मंदिर ग्वालियर गवर्नमेंट माफी डिपार्टमेंट से माफी प्राप्त मंदिर है। इस मंदिर में पुजारी शंकरदास पिता मनोहरदास थे। इनकी मृत्यु 1998 में हो गई। पुजारी शंकरदास ने 1970 में रजिस्टर्ड हिबानामा बख्शीश द्वारा अवंतिपुरा स्थित मकान व उससे लगी खुली भूमि पत्नी, पाँच पुत्र और एक पुत्री के नाम कर दी। इसके पश्चात 1993 में रजिस्टर्ड रिलीज डीड को पत्नी और पुत्र के अलावा पुत्रवधू के पक्ष में पॉवर रिलीज कर दिए गए।



इसकी शिकायत संभागायुक्त को की गई है जिसमें बताया गया कि फर्जीवाड़ा करते हुए मंदिर पर राज्य सहकारी आवास संघ से कर्ज ले लिया गया। प्रशासन के सामने दिक्कत यह है कि दस्तावेजों के अनुसार जमीन नगर निगम की है, किंतु मंदिर निजी। मामले की जाँच चल रही है। संभागायुक्त के निर्देश पर जाँच की गई तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं।



प्रशासन द्वारा नियुक्त अधिकारी द्वारा की गई जाँच में प्रारंभिक तौर पर यह सामने आया था कि शंकरदास के एक पुत्र ने फर्जी तरीके से 1993 में मंदिर की प्रॉपर्टी को बंधक रखकर मप्र आवास संघ से 80 हजार रुपए कर्ज ले लिया। इसकी एक भी किस्त जमा नहीं की। कर्ज की राशि सूद समेत बढ़कर करीब साढ़े सा‍त लाख रुपए हो जाने के बाद आवास संघ द्वारा संपत्ति कुर्की की कार्रवाई शुरू की गई। जब इसकी भनक क्षेत्रवासियों को लगी तो उन्होंने संभागायुक्त से शिकायत कर दी।


          राम राम

नेपाल में सनातन धर्म या लकीर के फकीर

नेपाल में पशु बलि की दशकों पुरानी परंपरा को रोकने की चारों ओर से हो रही अपीलों के बावजूद मंगलवार से दक्षिणी नेपाल में गढ़ीमाई समारोह की शुरूआत हो गई है। समारोह में देश के विभिन्न भागों से आए लोगों के साथ-साथ भारत के भी लाखों श्रद्धालु भाग ले रहे हैं। सूत्रों के अनुसार लोग मंगवार को शक्ति की देवी गढ़ीमाई की पूजा करने के लिए सुबह लगभग पौने तीन बजे से ही कतारों में लग गए थे। स्थानीय रेडियों के अनुसार कडी सुरक्षा के बीच देश के स्वास्थ्य मंत्री उमाकांत चौधरी लगभग दो बजे 260 वर्ष पुराने मंदिर में पहुंचे और पूजा में शामिल हुए।


अनुमान है कि मंदिर में होने वाले विश्व के सबसे बडे़ बलि समारोह में 35 से 40 हजार भैंसों की बलि दी जाएगी, जिनमें से ज्यादातर भारत से लाई गई हैं। फे्रंच अभिनेत्री व पशु अधिकार कार्यकर्ता ब्रिगिट बार्गोट ने राष्ट्रपति राम बरन यादव को पत्र लिखकर उनसे समारोह के दौरान पशु बलि रोकने की अपील की थी। उन्होंने लिखा था मुझे यह समझने में बहुत कठिनाई होती है कि आपका दिल ऎसी नृशंसता को कैसे सहन कर सकता है, देश का प्रमुख होने के नाते, आप इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार है।

भारत की जानी-मानी पशु अधिकार कार्यकर्ता मेनका गांधी ने भी प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल को पत्र लिखकर उनसे इसे रोकने की अपील की थी। इस बीच एनिमल वेलफेयर नेटवर्क नेपाल और एंटी-नेपाल सैक्रिफाइज एलायंस ने मुख्य पुजारी मंगल चौधरी और समारोह की आयोजन समिति के प्रमुख शिव चंद्र कुशवाह से सामुहिक बलि रोकने की अपील की है। संगठन द्वारा भेजे पत्र में लिखा गया कि हम आपसे हमारी अपील मानने की प्रार्थना करते हैं।
सनातन का नियम हे की जो किसी को जिन्दा करने की शक्ति रख ता हो वह मोट भी दे सकता हे |ऐसा करने का समर्थ केवल भगवान में ही है |

Hindu four Ashramas of life | हिंदू आश्रम व्यवस्था को जानें

Hindu four Ashramas of life हिंदू आश्रम व्यवस्था को जानें

सोमवार, 16 नवंबर 2009

यंत्र - मन्त्र - तन्त्र - और सनातन

सनातन धर्म में यंत्र मन्त्र और तन्त्र का भी विधान हे |परन्तु उन को कर ने के लिए आसन भोजन दिशा और महूर्त  का बंधन भी है |जो स्वयम बंधन में हो वह दुसरे को केसे मुक्त कर सकता है?
                             शबरी के घर राम खुद आये थे उस ने कोई मन्त्र यंत्र या तन्त्र की कोई साधना नही की थी यही सनातन सत्य है |
मन्त्र साधना में ध्यान की एकाग्रता अति आवश्यक होती है जिस का मन एकाग्र हो गया भला उसको और साधन अपनाने की क्या आवश्यकता है?





















क्या यह मात्र ठगी नही?


जो रही करती साफ़ रास्ते भर उसी के राम आगये |क्या इस से भला और ही कोई उपाय है?

रविवार, 15 नवंबर 2009

वास्तु दोष के नाम पर गुमराह मत करो

देखो दिवानो ऐसा कम न करो राम को बदनाम ना करो



आज हर व्यक्ति को सनातन धर्म से बेमुख होने का पाप लगा हुआ है |जिस के कारण मनुष्य परेशान दुखी और रोगी रहता हे उस की इस परेशानी का कुछ लोग फायदा उठाने को वास्तु दोष बता बने बननाए घरों में क्रूरता पूर्वक तोड़ फोड़ करवा अपना उलू साध रहे है ?
जरा सावधानी बरतें सनातन धर्म को अपना लें और बेफिक्र हो जावें |
रामायण गवाह है लंका जेसा वास्तु दोष कहाँ रहा होगा जहाँ कोई दिया बाती करने वाला कोई नही बचा था |
उस सोने की लंका में व्भीष्ण का घर ही हनुमान जी की पूंछ की आग से बचा था |
व्भीष्ण ने कोंन सा उपाय किया हुआ था ?
आइये वही उपाय कर आप भी अपने वास्तु दोष युक्त मकान को बिना तोड़ फोड़ किये सुरक्षित करें
तो आप भी लिख दें अपनी कुटिया पर राम-राम - राम - राम -राम राम|


राम
-राम-राम

राम
 राम-राम-राम-राम राम



शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

सनातन और ज्योतिष भाइयो कुछ मदद करो





कुछ ज्योतिषी नवरातों को शुभ - अशुभ बताते हैं |कुछ ज्योतिषी अमावस्या - पूर्णमाशी में भद्रा बता कर शुभ कार्य न करने की सलाह देते हैं |
जब की पुरातन विद्वानों ने नवरात्रों, अमावस्या , पूर्णमाशी ,को शुभ बताया था |फिर इस पर भद्र का अशुभ प्रभाव क्यों?
में समझ नही पाया महूर्त बने जिनको हम प्राण कहते हैं क्या दान पुन्य बिना महूर्त नही होसकते ?क्या मृत्यु का कोई महूर्त होता है?

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

सनातन का तहलका


ज्योतिष समस्त वेदों का नेत्र कहा
 जाता है |
अर्थात ज्योतिष के जानकारों को कमसे कम वेदों का ज्ञान तो होता ही है ? ज्योतिष विद्या है आध्यात्मिक भी विद्या ही है परन्तु आध्यात्म विद्या को सर्वश्रेष्ठ विद्या जाना जाता है आध्यात्म विद्या का मानना है की लकीर के फकीर नही होना चाहिए |आइये अब तुला और कुम्भ राशि पर विचार किया जावे पहली बात तो यह है की जन्म और नाम दोनों ही राशियों काप्र्भाव मानव जीवन पर होता है इसमें कोई दोराय नही होनी चाहिए दूसरी -बात राशियों का स्वरूप भी मनुष्य के कुछ गुणों को उजागर किया करता है हम यहाँ विशेष रूप से कुम्भ और तुला राशि का जिक्र करते हैं कुम्भ का स्वरूप ही इसे भरने का होता है जोचाहो इस में अछा-बुरा भरा जासकता है हर अछी - बुरी मित्र शत्रु राशि से smbhndh

किया जासकता है |ज्योतिषाचार्यों ने तुला और कुम्भ दोनों राशियों को मित्र राशि शुक्र -शनी ग्रहों के आधार पर मानाहे तथा इन दोनों के आधार पर नाम या जन्म राशि से वर -वधु की पत्रिका का मिलान करते आ रहे हैं |मेरा उन कुम्भ और तुला राशि के मिलान वाले भाई बहनों से तथा ज्योतिषी भाइयो से अनुरोध हे की ध्यान दें कही यह लोग राम और सीता जिसे नम्बर १ जोड़ी कहा जाता जेसा जीवन तो नही बन गया है ?
     यदि ऐसा हे तो तुला पर ध्यान देने की जरूरत हो गी तुला तराजू चाहे लाखों रूपय मूल्य के जेवर इसमें तोल लें इसे तो रहना खाली ही होता है |
सनातन-धर्म की स्थापना करते समय भगवान राम (तुला)माता सीता (कुम्भ)का सम्बन्ध उजागर किया था |ग्रहस्थी का सुख दोनों ही नही उठा सके जब की वह राजाओं की सन्तान और खुद ही ब्रह्म स्वरूप थे |विचार करो आम आदमी का भविष्य कैसा हो गा ?
आम आदमी उन जैसा सामर्थवान तो है ही नही
क्या आज कुम्भ तुला का मिलान उचित होगा?

धर्म का किनारा

दो किनारों के बीच धर्म हुआ करता है |

नदी
 दो किनारों में बहना नदी का धर्म हुआ
किनारा छुटा तो अधर्म हुआ


सागर भी बंधा दो किनारों में
अपना धर्म निभाता है
छोड़ दे जब किनारा
प्रलय तभी लाता है


इसी तरहा धर्म चारों
धर्म सनातन इनका
एक किनारा भवसागर
दूजा परमात्मा
जो तोड़ दे इस किनारे को
वह सनातन नही कहलाता