सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

बहस में भाग लीजिए

क्या धर्म के नाम पर चल रहे व्यवसाय पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
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22-02-10 (03:17 PM)
gita
इन पाखंडी माता ,बाबा,धर्मगुरुओं के पीछे लगने या पूजने से भला ईश्वर को क्यों नही पूजते
25-01-10 (02:25 PM)
sapan yagyawalkya
धर्म के हित में है कि यह व्यावसायिकता से दूर रहे.
23-01-10 (09:54 AM)
Bijendra pal singh
धर्म की आद वाले व्यापार को वाधित करना चाहिये. नक़ी व्यापार को.
23-12-09 (07:11 AM)
Arun Agrawal
कभी नहीं, जो व्यक्ति धर्म को जानता है वह कभी भी प्रतिबंध की बात तो सोच ही नहीं सकता है क्योंकि की प्रत्येक व्यक्ति का अपना धर्म होता है किसी और के धर्म पर नजर रखना अधर्म होता है | जो व्यक्ति स्वधर्म (नियत कर्म) का पालन करता है वही धर्म को सही जानता है | हर व्यक्ति अपनी करनी का स्वयं जिम्मेदार होता है | जो भी धर्म के नाम पर चल रहे व्यवसाय पर पाबंदी की बात करेगा वह अधर्मी ही होगा इसलिये किसी अधर्मी को किसी के धर्म पर आपत्ति कराने का अधिकार नहीं है | प्रत्येक व्यक्ति का अपना धर्म होता है | हो सकता है आपकी नजर में जो अधर्म है वह किसी का धर्म हो सकता है और जिसे आप धर्म समझते है वह किसी के लिए अधर्म हो सकता है | हर व्यक्ति अपनी करनी का स्वयं जिम्मेदार होता है | अपना नियत कर्म जानकार कर्म करना ही धर्म होता है किसी और के कर्म में व्यवधान उत्पन्न करना अधर्म होता है |
21-12-09 (07:56 PM)
premnarayan ved
kon sa vyavsay ? dharam ke naam par desh ki kai sanshathaye aaj karodo ke khel ke dhandhe me shamil hai.or yeh sab hamare desh me khuleaam chal raha hai.or en ke dhandhe me aprataykash roop se hamare rajnithigh bhi shamil hai.to es tarah ke vyavasayay par kon prathibandh lagayega.(premnarayan ved, indore)
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पृष्ठ «123»

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

योगगुरु रामदेव के कथन पर संतों का भड़कना सनातन धर्म का

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योगगुरु रामदेव के कथन पर संतों का भड़कना सनातन धर्म का तालिबानीकरण

जयराम "विप्लव"

Tagged with: controversy religion कला-संस्कृति मज़हब विवाद विविध



योग गुरू बाबा रामदेव vivekanand/vedanta/hinduismके शंकराचार्य विषयक अभिकथन पर काशी और हरिद्वार सहित देश भर के साधु संन्यासी एवं दशनामी परंपरा के महनीय अनुयायियों ने जिस प्रकार से प्रतिक्रिया की उससे सनातन धर्म के तालिबानीकरण की गन्ध आने लगी है। शांकर मत धर्म नहीं है यह दर्शन है दर्शन मत वैभिन्य के द्वारा ही विकसित होता है। यह अकेला दर्शन भी नहीं है। सबसे प्राचीन भी नहीं है। भारत के वैचारिक इतिहास में इसका प्रतिरोध पहली बार हुआ हो ऎसा भी नहीं है। यह दर्शन तो बौद्धों एवं जैनों के साथ खण्डन मण्डन पुरस्सर ही विकसित हुआ है। कुमारिल के निर्देश पर मण्डनमिश्र के साथ हुआ शास्त्रार्थ विश्वविश्रुत है। स्वयं जगद्गुरू आदिशंकर सांख्यों को अपने सि के विरूद्ध प्रधान मल्ल कहते हैं। आधुनिक भारत में भी महर्षि दयानन्द तथा महर्षि अरविन्द द्वारा आचार्य शंकर के सिद्धान्तों की प्रखर आलोचना हुई है। किन्तु इन सबके होते हुये भी न तो भगद्पाद् शंकर की अवमानना हुई न इन आलोचको को दबाव में लाने की कॊशिश ही दिखाई देती है। भारतीय परम्परा तो यह मानती है कि धर्म का तत्त्व किसी गहन गुफ़ा में है और श्रेष्ठजन जिस मार्ग पर चलते हैं वही धर्म पथ है। सत् का पथ इकलौता नही है। पुष्पदन्त के शब्दॊ में कहें तो रूचिनां वैचित्र्याद् ऋजु कुटिल नाना पथजुषाम्। रास्ते अनेक हैं , शंकर के पूर्व भी थे, शकर के पश्चात् भी हैं, शंकराचार्य का तो है ही उनके अलावा भी है। यहां तक कि समस्त वेदान्त शंकर का अद्वैत मत ही नहीं है। दर्शन के विद्यार्थी तथा अध्येता के रुप में मै यह मानता हूं कि अद्वैत मत भारतीय दर्शनो में श्रेष्ठतम है किन्तु यह श्रेष्ठता युक्ति तथा तर्क के धरातल पर है । आचरण के धरातल पर यह एकमेव है ऎसी अवधारणा कभी नहीं रही है। जिस प्रकार का शोरशराबा हुआ है वह सनातन धर्म के अज्ञान का परिचायक है। सभी प्रकार के विरोधों के होते हुए भी काशी एवं हरिद्वार में सन्तों की प्रतिक्रिया सनातन धारा को चोट तो पहुंचाती ही है, मध्यकालीन चर्च के व्यवहार तथा तालिबानी कार्य पद्धति की स्मृति करा देती है। चाहे जिस रुप में इसको लिया जाय भारत भूमि में स्वीकृत एवं प्रचलित पुरातन तथा सनातन वाद पथ के अनुकुल नहीं है। आखिर योगदर्शन के प्रतिपादक पतंजलि का अनुयायी ब्रह्मसत्यं जगतमिथ्या के सिद्धान्त के साथ सहमत हो इसके लिये उसे बाध्य करना उचित है क्या? असहमति का प्रकटीकरण अपराध है क्या? असहमति या विरोध का होना स्वाभाविक है उसको दूर करने का प्रयास उचित तथा श्लाघ्य है। किन्तु इसके लिये दर्शन के क्षेत्र में शास्त्रार्थ की स्वीकृत विधि का ही उपयोग होना चाहिये। बल से, दबाव से अथवा प्रभाव से सहमति बनाने की विधि सनातन परम्परा के अनुकुल नहीं है। असहमति को खण्डित करने के लिये शास्त्रार्थ ही शिष्ट मर्यादित विधि है। ध्यान रहे इस का भी प्रयोग दर्शन के ही क्षेत्र में संभव है। शास्त्रार्थ सिद्ध तथ्य होने से ही श्रद्धा उत्पन नहीं होती है वह तो तप के अधीन है यदाचरति श्रेष्ठः तदेवेतरो जनाः । स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनुवर्तते। सनातन धर्म किसी एक मत पर आधारित है। ’एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति”इसका उत्स है। इसीलिये दण्डधारी परिव्राजक शंकर भी अपनी माता के उर्ध्व दैहिक संस्कारों को स्वयं संपन्न करते हैं। शारीरक भाष्यकार यह सन्यासी शरीर का निषेध नहीं करता है अपितु उसकी निःसारता का प्रतिपादन करता है। यह मनसाऽप्यचिन्त्य रचना इन्द्रियानुभविक जगत तो नैसर्गिक है इसलिये लौकिक व्यवहारो का अपलाप कथमपि संभव नहीं है। व्यवहार के स्तर पर यह मिथ्यात्व तर्क एवं अनुभव द्वारा अवबोध्य है इन्द्रियानुभव से नहीं। भौतिक अग्नि की दाहकता अलीक नहीं है, नहि श्रुतिसहस्रेणाप्यग्निर्शीतं कर्तुं शक्यते। बाबा रामदेव ने शंकर के जगत मिथ्यात्व सिद्धान्त से अपनी असहमति जतायी है ब्रह्म सत्यं को स्वीकार किया है। शकर ब्रह्मवादी है मायावादी या मिथात्ववादी नहीं है। शंकर ने भी मिथ्यात्व के सिद्धान्त को उतना महत्त्व नहीं दिया है जितना हरिद्वार से लेकर काशी तक के शांकरमतावलम्बियों ने प्रतिपादित करने की कोशिश की है। आचार्य शंकर तो त्रिविध सत्ता के सिद्धान्त के उपन्यासकार हैं। जिस प्रकार संख्या बल के आधार पर बाबा रामदेव को दबाव में लाया गया है। वह कठोर पान्थिकता की ओर संकेतित कर रहा है।स्वयं शंकर तो धर्म के विषय में सूक्ष्म निर्णय के लिये परिषद् व्यापार की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं। विरोध प्रदर्शन तथा अखबारी बयानबाजी से किसी दर्शन की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने का तरीका सन्तो को शोभा नहीं देता है। सन्तो द्वारा यह कहना कि यदि इस अपराध के लिये बाबा रामदेव ने क्षमा याचना नहीं कि तो उनका सामाजिक बहिष्कार किया जायेगा सन्यास धर्म के विरूद्ध है, सन्यासी तो लोक तथा समाज का परित्याग ही है। यह आश्रम बिना समाज के परित्याग के सुलभ ही नहीं है। वह् तो सभी कर्मॊ तथा संबन्धों से उपर उठ कर लोक संग्रह मात्र के लिये कर्म की अवस्था है। अतः यह धमकी या चेतावनी वेदपथानुरोधी कैसे हो सकती है। हाँ इससे उलट यह सनातन धर्म को सामी पन्थो के समकक्ष अवश्य खडा कर देता है। आद्यशंकराचार्य ने आभी इस लोक को नित्य तथा वस्तुगत रुप में सत् मानने वाले मीमांसकों का गहन गभीर प्रत्याख्यान किया है। लेकिन वे इस प्रत्याख्यान हेतु भी मण्डनमिश्र से शास्त्रार्थ का भिक्षाटन करते हैं। भिक्षाटन अनुरोध है निवेदन है चुनौती नहीं है। ’वादे वादे जायते तत्त्वबोधः’ से किसी का विरोध नहीं है,होना भी नहीं चाहिये। किन्तु असहमति के स्वर संख्या बल पर नहीं दबाये जाने चाहिये। यदि पहले ऎसा हुआ होता तो बौध एवं मीमांसा मत के प्रत्याख्यानपूर्वक आचार्य शंकर का अद्वैत मत प्रतिष्ठित ही नहीं हो पाया होता। विरोधी चिन्तन का खण्डन करने का अधिकार सबको है। पर यह सैद्धान्तिक धरातल ही बना रहे। पुनश्च वेद का प्रामाण्य मानने वाला कोई भी विचार सनातन का विरोधि नही है अपितु सनातन वैचारिकी का ही एक भाग है। उसकी इस प्रकारसे प्रताडना आश्चर्यजनक है। :- रजनीश शुक्ला ,वाराणसी (दर्शनशास्त्र के अध्यापक हैं )

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

व्रत और कथा


माघ कृष्ण पक्ष षटतिला एकादशीपी.डी.एफ़ छापेंई-मेल

     Image

व्रत कथा

नारद मुनि त्रिलोक भ्रमण करते हुए भगवान विष्णु के धाम वैकुण्ठ पहुंचे। वहां पहुंच कर उन्होंने वैकुण्ठ पति को प्रणाम करके उनसे अपनी जिज्ञास व्यक्त करते हुए प्रश्न किया कि प्रभु षट्तिला एकादशी की क्या कथा है और इस एकादशी को करने से कैसा पुण्य मिलता है।

देवर्षि द्वारा विनित भाव से इस प्रकार प्रश्न किये जाने पर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु ने कहा प्राचीन काल में पृथ्वी पर एक ब्राह्मणी रहती थी। ब्राह्मणी मुझमें बहुत ही श्रद्धा एवं भक्ति रखती थी। यह स्त्री मेरे निमित्त सभी व्रत रखती थी। एक बार इसने एक महीने तक व्रत रखकर मेरी आराधना की। व्रत के प्रभाव से स्त्री का शरीर तो शुद्ध तो हो गया परंतु यह स्त्री कभी ब्राह्मण एवं देवताओं के निमित्त अन्न दान नहीं करती थी अत: मैंने सोचा कि यह स्त्री बैकुण्ड में रहकर भी अतृप्त रहेगी अत: मैं स्वयं एक दिन भिक्षा लेने पहुंच गया।

स्त्री से जब मैंने भिक्षा की याचना की तब उसने एक मिट्टी का पिण्ड उठाकर मेरे हाथों पर रख दिया। मैं वह पिण्ड लेकर अपने धाम लौट आया। कुछ दिनों पश्चात वह स्त्री भी देह त्याग कर मेरे लोक में आ गयी। यहां उसे एक कुटिया और आम का पेड़ मिला। खाली कुटिया को देखकर वह स्त्री घबराकर मेरे समीप आई और बोली की मैं तो धर्मपरायण हूं फिर मुझे खाली कुटिया क्यों मिली है। तब मैंने उसे बताया कि यह अन्नदान नहीं करने तथा मुझे मिट्टी का पिण्ड देने से हुआ है।

मैंने फिर उस स्त्री से बताया कि जब देव कन्याएं आपसे मिलने आएं तब आप अपना द्वार तभी खोलना जब वे आपको षट्तिला एकादशी के व्रत का विधान बताएं। स्त्री ने ऐसा ही किया और जिन विधियों को देवकन्या ने कहा था उस विधि से ब्रह्मणी ने षट्तिला एकादशी का व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उसकी कुटिया अन्न धन से भर गयी। इसलिए हे नारद इस बात को सत्य मानों कि जो व्यक्ति इस एकादशी का व्रत करता है और तिल एवं अन्न दान करता है उसे मुक्ति और वैभव की प्राप्ति होती है।

व्रत विधान के विषय में जो पुलस्य ऋषि ने दलभ्य ऋषि को बताया वह यहां प्रस्तुत है। ऋषि कहते हैं माघ का महीना पवित्र और पावन होता है इस मास में व्रत और तप का बड़ा ही महत्व है। इस माह में कृष्ण पक्ष में आने वाली एकादशी को षट्तिला कहते हैं। षट्तिला एकादशी के दिन मनुष्य को भगवान विष्णु के निमित्त व्रत रखना चाहिए। व्रत करने वालों को गंध, पुष्प, धूप दीप, ताम्बूल सहित विष्णु भगवान की षोड्षोपचार से पूजन करना चाहिए। उड़द और तिल मिश्रित खिचड़ी बनाकर भगवान को भोग लगाना चाहिए। रात्रि के समय तिल से 108 बार ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय स्वाहा इस मंत्र से हवन करना चाहिए।

इस व्रत में तिल का छ: रूप में दान करना उत्तम फलदायी होता है। जो व्यक्ति जितने रूपों में तिल का दान करता है उसे उतने हज़ार वर्ष स्वर्ग में स्थान प्राप्त होता है। ऋषिवर ने जिन 6 प्रकार के तिल दान की बात कही है वह इस प्रकार हैं 1. तिल मिश्रित जल से स्नान 2. तिल का उबटन 3. तिल का तिलक 4. तिल मिश्रित जल का सेवन 5. तिल का भोजन 6. तिल से हवन। इन चीजों का स्वयं भी प्रयोग करें और किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलाकर उन्हें भी इन चीज़ों का दान दें।

इस प्रकार जो षट्तिला एकादशी का व्रत रखते हैं भगवान उनको अज्ञानता पूर्वक किये गये सभी अपराधों से मुक्त कर देते हैं और पुण्य दान देकर स्वर्ग में स्थान प्रदान करते हैं। इस कथन को सत्य मानकर जो भग्वत् भक्त यह व्रत करता हैं उनका निश्चित ही प्रभु उद्धार करते हैं।

 

 

 
 

 
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हद हो गयी बेशर्मी की बाबा लोगो

हद हो गयी बेशर्मी की बाबा लोगो http://www.siddhdata.com/guru-vachan/beautiful-yug-kaliyug/
नारी जिसको बताया रामायण में पर्दे का अधिकारी
बेशर्म तुम्ही नाच सको संग उस नारी

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

सनातन धर्म को समझना आसान नहीं

सनातन धर्म को समझना आसान नहीं

SANATAN-DHARM-IMAGEसनातन धर्म की गुत्थियों को देखते हुए कई बार इसे कठिन और समझने में मुश्किल धर्म समझा जाता है. हालांकि, सच्चाई तो ऐसी नहीं है, फिर भी इसके इतने आयाम, इतने पहलू हैं कि लोगबाग कई बार इसे लेकर भ्रमित हो जाते हैं. सबसे बड़ा कारण इसका यह कि सनातन धर्म किसी एक दार्शनिक, मनीषा या ऋषि के विचारों की उपज नहीं है. न ही यह किसी ख़ास समय पैदा हुआ. यह तो समय-समय पर पैदा हुए दार्शनिकों और मनीषाओं के विचारों का संग्रह है. इसका सतत विकास हुआ. समय की धारा के साथ ही यह भी प्रवहमान और विकसमान रहा. साथ ही यह किसी एक द्रष्टा, सिद्धांत या तर्क को भी वरीयता नहीं देता. कोई एक विचार सर्वश्रेष्ठ इसी वजह से कई सारे पूरक सिद्धांत भी बने. यही वजह है कि इसके खुलेपन की वजह से ही कई अलग नियम इस धर्म में हैं. यही विशेषता इसे अधिक ग्राह्य और सूक्ष्म बनाती है. इसका मतलब यह है कि अधिक सरल दिमाग वाले इसे समझने में भूल कर सकते हैं. अधिक सूक्ष्म होने के साथ ही सनातन धर्म को समझने के कई चरण और प्रक्रियाएं हैं, जो इस सूक्ष्म सिद्धांत से पैदा होती हैं. हालांकि इसका मतलब यह नहीं कि सरल-सहज मस्तिष्क वाले इसे समझ ही नहीं सकते. पूरी गहराई में जानने के लिए भले ही हमें गहन और गतिशील समझदारी विकसित पड़े, लेकिन सामान्य लोगों के लिए भी इसके सरल और सहज सिद्धांत हैं. सनातन धर्म कई बार भ्रमित करनेवाला लगता है और इसके कई कारण हैं. अगर बिना इसके गहन अध्ययन के आप इसका विश्लेषण करना चाहेंगे, तो कभी समझ नहीं पाएंगे. इसका कारण यह कि सनातन धर्म सीमित आयामों या पहलुओं वाला धर्म नहीं है. यह सचमुच ज्ञान का समुद्र है. इसे समझने के लिए इसमें गहरे उतरना ही होगा.
सनातन धर्म के विविध आयामों को नहीं जान पाने की वजह से ही कई लोगों को लगता है कि सनातन धर्म के विविध मार्गदर्शक ग्रंथों में विरोधाभास पाते हैं. इस विरोधाभास का जवाब इसी से दिया जा सकता है कि ऐसा केवल सनातन धर्म में नहीं. कई बार तो विज्ञान में भी ऐसी बात आती है. जैसे, विज्ञान हमें बताता है कि शून्य तापमान पर पानी बर्फ बन जाता है. वही विज्ञान हमें यह भी बताता है कि पानी शून्य डिग्री से भी कम तापमान पर भी कुछ खास स्थितियों में अपने मूल स्वरूप में रह सकता है. इसका जो जवाब है, वही सनातन धर्म के संदर्भ में भी है. जैसे, विज्ञान के लिए दोनों ही तथ्य सही है, भले ही कितूने विरोधाभासी हों, उसी तरह सनातन धर्म भी अपने खुलेपन की वजह से कई सारे विरोधी विचारों को ख़ुद में समेटे रहता है. हम पहले भी कह चुके हैं-एकं सत, विप्रा बहुधा वदंति-उसी तरह किसी एक सत्य के भी कई सारे पहलू हो सकते हैं. कुछ ग्रंथ यह कह सकते हैं कि ज्ञान ही परम तत्व तक पहुंचने का रास्ता है, कुछ ग्रंथ कह सकते हैं कि भक्ति ही उस परमात्मा तक पहुंचूने का रास्ता है. सनातन धर्म में हर उस सत्य या तथ्य को जगह मिली है, जिनमें तनिक भी मूल्य और महत्व हो. इससे भ्रमित होने की ज़रूरत नहीं है. आप उसी रास्ते को अपनाएं जो आपके लिए सही और सहज हो. याद रखें कि एक रास्ता अगर आपके लिए सही है, तो दूसरे रास्ते या तथ्य ग़लत हैं. साथ ही, सनातन धर्म खुद को किसी दीवार या बंधन में नहीं बांधता है. ज़रूरी नहीं कि आप जन्म से ही सनातनी हैं. सनातन धर्म का ज्ञान जिस तरह किसी बंधन में नहीं बंधा है, उसी तरह सनातन धर्म खुद को किसी देश, भाषा या नस्ल के बंधन में नहीं बांधता. सच पूछिए तो युगों से लोग सनातन धर्म को अपना रहे हैं.

आर्य समाज एक डूबता जहाज 2

कृण्वन्तो विश्वमार्यम्

आर्य समाज एक डूबता जहाज

आर्य समाज यानि एक डूबता जहाज।पता है क्योँ?क्योँकि इसके खेवनहार दयानंद को अपना आदर्श मानने वाले आर्य राजनीति के गर्त में डूब गये हैँ।वेदपथ पर चलने की प्रेरणा देने वाले विद्वानोँ को केवल अपनी दक्षिणा की चिँता है।आर्य समाज भाड मेँ जाये या वेद चूल्हे मेँ बस दक्षिणा अच्छी मिलनी चाहिये।अरे धर्म का चोला पहनकर लूटने वालोँ बंद करो यह दोगलापन।करनी कथनी मेँ भेद है आचरण मेँ छेद है ठेँगे पर ईश्वर इनके कोसोँ दूर वेद है।प्रभु को न्यायकारी कहने वालो कुछ तो डरो उससे वो सब देखता है।तुम्हे कोई अधिकार नही है दूसरोँ को पाखंडी कहने का क्योँकि तुमसे बडा पाखंडी कोई नही है।असत के सागर से तराने वाली आर्य समाज रूपी नौका को डुबाने वाले अन्य कोई नही उसके अपने हैँ।अरे पथ प्रदर्शकोँ तुम्हेँ डूबना है तो डूबो पर इस पवित्र संस्था को तो मत डुबाओ।

यह् न तो

यह् न तो डूबता जहाज है, ना यह डूबता सितारा | समय की दौड़‌ के साथ‌ चलती इस‌ गाड़ी पर बहुत मुसाफिर बिना टिकिट सवार हो गये हैं , तो आवष्यक्ता है, टिकिट चैकर्स की | जितने भी विद्वान हैं, जितने भी श्रद्धावान हैं उनके आगे आने का समय आ गया है, आर्यसमाज के नये विस्तार के लिए आगे आने का | एक ऋषि से आरम्भ यह समाज एक नयी करवट ले सके,ऐसा हम सब का प्रयास होना चाहिए | आपका प्रयास भी इसी दिशा में एक सराहनीय कदम नहीं है क्या ?
आनन्द‌

i agree with the comments of

i agree with the comments of Mr Bakshi

I agree believer of arya

I agree believer of arya samaj has been reducing day by day. But Arya Samaj is so great in itself that Arya Samaj can stand alone without any help.

Why are you so despondent

Why are you so despondent ?
Or do you want to provoke others to do something to activate Arya Samaj ?
Let us know, what you propose to do to ensure that the ship does not sink. What are you interested in ?
I can understand your anger at the so-called leaders of Arya Samaj. You can simply stop treating them as your leaders. They will suffer the fate they deserve.
Like-minded people need to unite and working together, each one can contribute a lot, well without the so-called leaders.
Aditya

Namestey Aditya ji, I

Namestey Aditya ji,
I agree with you 100%.
Dhanyavad,
Anupam

नमस्ते

नमस्ते रविन्द्र जी,
आप के कवि ह्रिदय भावनाओ की मै बहुत कद्र करता हू. शायद मै शुद्ध् रूप से नही लिख पा रहा. लेकिन अपनी भावनाओ को आप तक पहुचाने मे सफल रहूगा एसा मै मानता हू.
सम्पादन का अधिकार वेब्साइट के स्वामी को है.
मुझे एसा लगा कि इस वेबसाइट को देखने वाले कम ही है. शायद आर्य समाज के हितचिन्तक तो कभी कभी देख ही लेते होगे.
आपकी चिन्ता अपनी जगह ठीक है. मेरा व्यक्तिगत विचार है कि केकडा प्रव्रिति भी आर्य समाज की बहुत हानि कर रही है. सङ्ठन सूक्त पढते है लेकिन विचार नही करते. चिन्तन मनन की कमी अखरती है. ईश्वर सब को सुबुद्धि दे एसी प्रार्थना है.
आदित्य‌

सम्पादन का

सम्पादन का अधिकार अब आप सब को भी है.
अनुपम

नमस्ते

नमस्ते जी,
यह बात तो समझ नही आई कि सम्पादन का अधिकार सब को कैसे मिल गया.
ऐसा होना भी नही चाहिये नही तो इस से हानि भी हो सकती है
आदित्य‌

People get the right when

People get the right when they prove that they have good intentions to contribute. If someone misuses it, then the user can be barred form contributing.

नमस्ते

नमस्ते रविन्द्र जी,
काफी लम्बा समय हो गया आपका कोई लेख पढने को नही मिला. क्या बात है बहुत व्यस्त हो गये है ?
स्वामी जगदीश्वरानन्द जी नही रहे. धीरे धीरे अछ्छे लोग कम हो रहे है. कुछ प्रेरणादायक लिखिये. पढ कर अच्छा लगेगा.
स्वागतम्

आर्य समाज एक डूबता जहाज

आर्य समाज एक डूबता जहाज

आर्य समाज यानि एक डूबता जहाज।पता है क्योँ?क्योँकि इसके खेवनहार दयानंद को अपना आदर्श मानने वाले आर्य राजनीति के गर्त में डूब गये हैँ।वेदपथ पर चलने की प्रेरणा देने वाले विद्वानोँ को केवल अपनी दक्षिणा की चिँता है।आर्य समाज भाड मेँ जाये या वेद चूल्हे मेँ बस दक्षिणा अच्छी मिलनी चाहिये।अरे धर्म का चोला पहनकर लूटने वालोँ बंद करो यह दोगलापन।करनी कथनी मेँ भेद है आचरण मेँ छेद है ठेँगे पर ईश्वर इनके कोसोँ दूर वेद है।प्रभु को न्यायकारी कहने वालो कुछ तो डरो उससे वो सब देखता है।तुम्हे कोई अधिकार नही है दूसरोँ को पाखंडी कहने का क्योँकि तुमसे बडा पाखंडी कोई नही है।असत के सागर से तराने वाली आर्य समाज रूपी नौका को डुबाने वाले अन्य कोई नही उसके अपने हैँ।अरे पथ प्रदर्शकोँ तुम्हेँ डूबना है तो डूबो पर इस पवित्र
संस्था को तो मत डुबाओ।

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यह् न तो

यह् न तो डूबता जहाज है, ना यह डूबता सितारा | समय की दौड़‌ के साथ‌ चलती इस‌ गाड़ी पर बहुत मुसाफिर बिना टिकिट सवार हो गये हैं , तो आवष्यक्ता है, टिकिट चैकर्स की | जितने भी विद्वान हैं, जितने भी श्रद्धावान हैं उनके आगे आने का समय आ गया है, आर्यसमाज के नये विस्तार के लिए आगे आने का | एक ऋषि से आरम्भ यह समाज एक नयी करवट ले सके,ऐसा हम सब का प्रयास होना चाहिए | आपका प्रयास भी इसी दिशा में एक सराहनीय कदम नहीं है क्या ?
आनन्द‌

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

विरोधाभासी नहीं है सनातन धर्म :

''यह पथ सनातन है। समस्त देवता और मनुष्य इसी मार्ग से पैदा हुए हैं तथा प्रगति की है। हे मनुष्यों आप अपने उत्पन्न होने की आधाररूपा अपनी माता को विनष्ट न करें।''- (ऋग्वेद-3-18-1)

सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। जैसे सत्य सनातन है। ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है। वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है।

वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिए सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है। मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन है। एकनिष्ठता, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण का मोक्ष मार्ग है अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है। मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है। यही सनातन धर्म का सत्य है।

सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम आदि हैं जिनका शाश्वत महत्व है। अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व वेदों में इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था।

।।ॐ।।असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।।- वृहदारण्य उपनिष

भावार्थ : अर्थात हे ईश्वर मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।

जो लोग उस परम तत्व परब्रह्म परमेश्वर को नहीं मानते हैं वे असत्य में गिरते हैं। असत्य से मृत्युकाल में अनंत अंधकार में पड़ते हैं। उनके जीवन की गाथा भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है। वे कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं होते। मृत्यु आए इससे पहले ही सनातन धर्म के सत्य मार्ग पर आ जाने में ही भलाई है। अन्यथा अनंत योनियों में भटकने के बाद प्रलयकाल के अंधकार में पड़े रहना पड़ता है।

।।ॐ।। पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।- ईश उपनिष
भावार्थ : सत्य दो धातुओं से मिलकर बना है सत् और तत्। सत का अर्थ यह और तत का अर्थ वह। दोनों ही सत्य है। अहं ब्रह्मास्मी और तत्वमसि। अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ और तुम ही ब्रह्म हो। यह संपूर्ण जगत ब्रह्ममय है। ब्रह्म पूर्ण है। यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है। पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनता नहीं आती। वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है। यही सनातन सत्य है।

जो तत्व सदा, सर्वदा, निर्लेप, निरंजन, निर्विकार और सदैव स्वरूप में स्थित रहता है उसे सनातन या शाश्वत सत्य कहते हैं। वेदों का ब्रह्म और गीता का स्थितप्रज्ञ ही शाश्वत सत्य है। जड़, प्राण, मन, आत्मा और ब्रह्म शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं। सृष्टि व ईश्वर (ब्रह्म) अनादि, अनंत, सनातन और सर्वविभु हैं।

जड़ पाँच तत्व से दृश्यमान है- आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी। यह सभी शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं। यह अपना रूप बदलते रहते हैं किंतु समाप्त नहीं होते। प्राण की भी अपनी अवस्थाएँ हैं: प्राण, अपान, समान और यम। उसी तरह आत्मा की अवस्थाएँ हैं: जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और तुर्या। ज्ञानी लोग ब्रह्म को निर्गुण और सगुण कहते हैं। उक्त सारे भेद तब तक विद्यमान रहते हैं जब तक ‍कि आत्मा मोक्ष प्राप्त न कर ले। यही सनातन धर्म का सत्य है।

ब्रह्म महाआकाश है तो आत्मा घटाकाश। आत्मा का मोक्ष परायण हो जाना ही ब्रह्म में लीन हो जाना है इसीलिए कहते हैं कि ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्‍या यही सनातन सत्य है। और इस शाश्वत सत्य को जानने या मानने वाला ही सनातनी कहलाता है।

हिंदुत्व :
हिन्दू एक अप्रभंश शब्द है। हिंदुत्व या हिंदू धर्म को प्राचीनकाल में सनातन धर्म कहा जाता था। एक हजार वर्ष पूर्व हिंदू शब्द का प्रचलन नहीं था। ऋग्वेद में कई बार सप्त सिंधु का उल्लेख मिलता है। सिंधु शब्द का अर्थ नदी या जलराशि होता है इसी आधार पर एक नदी का नाम सिंधु नदी रखा गया, जो लद्दाख और पाक से बहती है। भाषाविदों का मानना है कि हिंद-आर्य भाषाओं की 'स' ध्वनि ईरानी भाषाओं की 'ह' ध्वनि में बदल जाती है। आज भी भारत के कई इलाकों में 'स' को 'ह' उच्चारित किया जाता है।

इसलिए सप्त सिंधु अवेस्तन भाषा (पारसियों की भाषा) में जाकर हप्त हिंदू में परिवर्तित हो गया। इसी कारण ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम दिया। किंतु पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों को आज भी सिंधू या सिंधी कहा जाता है।

ईरानी अर्थात पारस्य देश के पारसियों की धर्म पुस्तक 'अवेस्ता' में 'हिन्दू' और 'आर्य' शब्द का उल्लेख मिलता है। दूसरी ओर अन्य इतिहासकारों का मानना है कि चीनी यात्री हुएनसांग के समय में हिंदू शब्द की उत्पत्ति ‍इंदु से हुई थी। इंदु शब्द चंद्रमा का पर्यायवाची है। भारतीय ज्योतिषीय गणना का आधार चंद्रमास ही है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इन्तु' या 'हिंदू' कहने लगे।

आर्यत्व :
आर्य समाज के लोग इसे आर्य धर्म कहते हैं, जबकि आर्य किसी जाति या धर्म का नाम न होकर इसका अर्थ सिर्फ श्रेष्ठ ही माना जाता है। अर्थात जो मन, वचन और कर्म से श्रेष्ठ है वही आर्य है। बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य का अर्थ चार श्रेष्ठ सत्य ही होता है। बुद्ध कहते हैं कि उक्त श्रेष्ठ व शाश्वत सत्य को जानकर आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करना ही 'एस धम्मो सनंतनो' अर्थात यही है सनातन धर्म।ऐसा नही है
आर्य समाज हें , यह वो समाज हें जिसे शाश्वत और सदेव रहने वाले सनातन धर्म में कुछ खामियां नजर आई तथा आर्य समाज बनालिया गया .............
इस समाज ने इसे नया रूप प्रदान किया उन कुरीतियों को अज्ञानता वश निकालने का दुसाहस किया जेसे सतीप्रथा आज तक लोग सती होना पत्नी का पतीके साथ चिता पर जल जाना ही मानते हैं |जब कि महाभारत कि कुंती पांडू के साथ सती नही हुई जो साबित करता हें कि यह प्रथा तबसे आज तक चली आरही है,रही बात सती होने क़ीउस विधवा से पूछो जो जीवत रह कर भी प्रति दिन सती हुआ करती है |जिस ने विवाह करवा लिया उससे भी बात करलो जिस का पुत्र मरा और यह उसकी विधवा हुई वह परिवार गालियाँ निकलकर खाना खाता  होगा |अब जहां वह ब्याही गई डगर वहाँ भी आसन नही ,अपमानित तो वहां भी हुई |

इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ श्रेष्ठ समाज का धर्म नही  होता है। प्राचीन भारत को आर्यावर्त भी कहा जाता था जिसका तात्पर्य श्रेष्ठ जनों के निवास की भूमि था। अतः आर्य समाज को श्रेष्ठ जनों का समाज केसे कहा जासकता है | इसे धर्म परिवर्तित धर्म कहा जाना चाहिए जो सनातन धर्म हो ही नही सकता |

सनातन मार्ग :
विज्ञान जब प्रत्येक वस्तु, विचार और तत्व का मूल्यांकन करता है तो इस प्रक्रिया में धर्म के अनेक विश्वास और सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं। विज्ञान भी सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है किंतु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है विज्ञान धीरे-धीरे उससे सहमत होता नजर आ रहा है।

हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्था में ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को जानकर उसे स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया था। वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटाकर 'मोक्ष' की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था। मोक्ष के बगैर आत्मा की कोई गति नहीं इसीलिए ऋषियों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है।


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मोक्ष का मार्ग :
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में मोक्ष अंतिम लक्ष्य है। यम, नियम, अभ्यास और जागरण से ही मोक्ष मार्ग पुष्ट होता है। जन्म और मृत्यु मिथ्‍या है। जगत भ्रमपूर्ण है। ब्रह्म और मोक्ष ही सत्य है। मोक्ष से ही ब्रह्म हुआ जा सकता है। इसके अलावा स्वयं के अस्तित्व को कायम करने का कोई उपाय नहीं। ब्रह्म के प्रति ही समर्पित रहने वाले को ब्राह्मण और ब्रह्म को जानने वाले को ब्रह्मर्षि और ब्रह्म को जानकर ब्रह्ममय हो जाने वाले को ही ब्रह्मलीन कहते हैं।

विरोधाभासी नहीं है सनातन धर्म :
सनातन धर्म के सत्य को जन्म देने वाले अलग-अलग काल में अनेक ऋषि हुए हैं। उक्त ऋषियों को दृष्टा कहा जाता है। अर्थात जिन्होंने सत्य को जैसा देखा, वैसा कहा। इसीलिए सभी ऋषियों की बातों में एकरूपता है। जो उक्त ऋषियों की बातों को नहीं समझ पाते वही उसमें भेद करते हैं। भेद भाषाओं में होता है, अनुवादकों में होता है, संस्कृतियों में होता है, परम्पराओं में होता है, सिद्धांतों में होता है, लेकिन सत्य में नहीं।

वेद कहते हैं ईश्वर अजन्मा है। उसे जन्म लेने की आवश्यकता नहीं, उसने कभी जन्म नहीं लिया और वह कभी जन्म नहीं लेगा। ईश्वर तो एक ही है लेकिन देवी-देवता या भगवान अनेक हैं। उस एक को छोड़कर उक्त अनेक के आधार पर नियम, पूजा, तीर्थ आदि कर्मकांड को सनातन धर्म का अंग नहीं माना जाता। यही सनातन सत्य है।

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

बृहस्पति को गुरू क्यों कहते हैं !
 
  खगोल शास्त्र और ज्योतिष में सौरमंडल के नौ ग्रहों में सूर्य सहित शुक्र और बृहस्पति आते हैं। सप्ताह के सात दिनों का नामकरण में भी इन तीनों से तीन दिनों का नाम जु़डा हुआ है। परस्पर तीनों की तुलना में सूर्य सर्वाधिक प्रकाशवान हैं, सबसे बडे़ और सबसे भारी हैं। बृहस्पति ग्रह का एक पर्यायवाची शब्द जो प्रचलन में व्यापक देखने को मिलता है वह गुरू शब्द है। गुरू शब्द के अनेक अर्थ होते हैं जिनमें आधार भूत अर्थ जो अधंकार को मिटाये, भारी, ब़डा इत्यादि हैं।
पौराणिक साहित्य में देवताओं के गुरू बृहस्पति हैं और असुरों के गुरू शुक्र शुक्राचार्य हैं। अत: इन तीनों यथा सूर्य, बृहस्पति और शुक्र में गुरू का संबोधन सूर्य को न दिया जाकर बृहस्पति को क्यों दिया गया है? यह एक सहज जिज्ञासा है। बृहस्पति को गुरू नामकरण दिया जाना निरर्थक नहीं हो सकता है अपितु उसमें कोई सार्थकता अवश्य है वह सार्थकता क्या हो सकती है और वह कितनी हितकारी हो सकती है यह जानने के लिए गुरू शब्द की पवित्रता और महानता की पृष्ठभूमि को जानना आवश्यक प्रतीत होता है।
गुरू शब्द का प्रयोग भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक स्तर पर किया जाता है। भौतिक और दैविक स्तर अपरा जगत के अंतर्गत हैं और आध्यात्म को परास्तर पर व्यक्त किया जाता है। इन्हीं को पांच कोष अथवा सात लोकों के रूप में भी व्यक्त किया गया है यथा अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोश हैं तथा भू, भुव:, स्व: जन, मह, तप और सत्य लोक हैं। इनमें मनोमय को चन्द्रलोक तथा विज्ञानमय को सूर्य लोक भी कहा गया है। आनंदमय कोश का स्थान सत्यलोक माना गया है। भारतीय परम्परा में विश्व शांति हेतु भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक शांति हेतु एकरूपता बनाए रखते हुए। ईश्वर से प्रार्थना की जाती है यथा ú शान्ति: शान्ति: शान्ति:।
आध्यात्म का स्तर सूर्य और चन्द्रमा के लोकों से भी कहीं आगे तक जाता है। अत: गुरू संबोधन सूर्य अथवा चंद्रमा को नहीं दिया गया। दैविक स्तर पर सतयुग की गाथाएं देव और असुरों के मध्य परस्पर संघषो का वर्णन करती हैं। संघष से अशांति ही उत्पन्न होती हैं अत: अधिदैविक स्तर पर शांति हेतु मार्गदर्शन कौन करें- देवगुरू बृहस्पति या असुर गुरू शुक्राचार्यक् गुरूपद की मर्यादा की पवित्रता के अनुरूप यद्यपि देव और असुर परस्पर शत्रु थे किन्तु उनके गुरू बृहस्पति और शुक्र के संबंध आत्मीय थे।
भौतिक जगत में जहाँ संपूर्ण संसार धन-संपत्ति और सांसारिक सुखों की कामना करता है वहाँ जगद्गुरू शंकराचार्य ने गुरू प्रशस्ति पर संस्कृत भाषा में दो अष्टक लिखे हैं। एक अष्टक में गुरू तत्व का विवेचन करते हुये श्री सत्यदेव को समर्पित किया है जिनका निरंतर स्मरण बना रहना चाहिए। दूसरे अष्टक में श्री गुरू के चरण कमल की तुलना में संपूर्ण संसार की निस्सारता को व्यक्त किया है। आध्यात्म के जिज्ञासुओं के लिये ये अमूल्य योगदान है।  बृहस्पति के नक्षत्र                                  बृहस्पति की राशिया                          आकर्षक व्यक्तित्व का दर्पण - गुरू पर्वत
  

    

भारतीय बाजार में भी बिकते हैं राम

अमेरिकी बाजार में हनुमान को खिलौने के रूप में बेचा जा रहा है। हनुमान को इस पेश करने पर हिंदुओं ने नाराजगी जताई है। हिंदुओं की तरफ से जार
ी एक बयान में कहा गया है कि कमर्शल यूज़ के लिए हिंदू देवताओं का इस्तेमाल अनुचित है और इससे उनकी भावनाएं आहत हुई हैं। 

नेवेदा से बयान जारी करने वाले यूनिवर्सल सोसायटी ऑफ हिन्दूइज्म के अध्यक्ष राजन जेद ने कहा हनुमान को खिलौना बनाकर भद्दा मजाक किया गया है। इससे हमारे बच्चों में गलत संदेश जाएगा कि वे हनुमान को कंट्रोल कर सकते हैंजबकि वास्तविक स्थिति इससे विपरीत है। हम उनके आगे सिर झुकाते हैं। हिंदू अवेकनिंग संस्था की भावना शिंदे ने हनुमान को खिलौने के रूप में पेश करने वाली कंपनी को लिखे पत्र में कहा कि हनुमान देवता हैं। इनकी पूजा मंदिरों और घरों में की जाती है। उनकी जगह सड़क या कार के कोने में नहीं है। न ही उन्हें कोई पैर लगा सकता है। 

लेकिन खिलौने के रूप में पेश कर कंपनी ने इन भावनाओं का मजाक उड़ाया है। इसलिए हनुमान रूपी खिलौने तुरंत बाजार से हटाए जाएं और इनका उत्पादन बंद किया जाए।

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

सनातन धर्म के ठेके दरों द्वारा सनातन का अपमान



इस चित्र में स्पष्ट हे की भगवान राम के चित्र को नीचा दिखाया जा रहा हे





गीता एक सचाई

फिर अवतार क्या है इसे भी समझ लीजिए ताकि पता चल सके कि आज मानव विभिन्न धर्मों में विभाजित क्यों हो चुके हैं हालांकि उनका पैदा करने वाला भी एक है। ज़ाहिर है कि जब ईश्वर एक तो धर्म अलग अलग क्यों कभी इस सम्बन्ध में सोचा ?
जी हाँ ! यह अवतार शब्द को न समझने का परिणाम है। अवतार की परिभाषा करते हुए डा0 श्री राम श्रमा कल्कि पुराण के 278 पृष्ठ पर लिखते हैं ( संसार की गिरी हुई स्थिति में उन्नति की ओर ले जाने वाला महामानव नेता) एक तुछ मानव होता हे एक महामानव इसी तरहा एक आत्मा होती है और दूसरी महानात्मा अर्थात महात्मा
ज्ञात यह हुआ कि हमारे समाज के वह गुरु महामानव थे,या महात्मा  जिन्हों ने मानव का मार्गदर्शन ईश्वरीय आदेशानुसार किया था और यही संदेश दिया था कि एक ईश्वर की पूजा करो तथा उसका भागीदार मत बनाओ। स्वयं वह भी एक ही ईश्वर की पूजा करते थे।परन्तु वह ईश्वर तो नही हुए  बाद में लोगों ने समझा कि वह ईश्वर के रूप में आए हैं इस लिए उनकी पूजा ईश्वर ही की पूजा है।परन्तु यह भी तो सत्य है की पूजा का विरोध करने वालों को प्रकृति जबरन अपने माता पिता और कुटुंब की पूजा अर्चना और सेवा में लगा लेती है , जिसके कारण अलग अलग देशों में लोगों ने अपने अपने गुरुओं को ही पूज्य मान लिया इस प्रकार विभिन्न धर्म वजूद में आ गए। आज भी धरती पर ईश्वर तक पहुंचाने वाला धर्म पाया जाता है। ज़रूरत है कि उसकी खोज की जाए। 

                    ऐसा धर्म वही सनातन धर्म जिसके नाश हो ने पर ईश्वर स्वयम अवतरित हो पुनः उसी पुरातन सनातन धर्म की स्थापना करते हैं 

यज्ञ से पापों का नाश होता है

 प्रभु प्राप्ति की राह दिखाती है प्रेम की शक्ति
विश्ववंद्य महाबाहु परशुरा
फरीदाबाद [जागरण संवाद केंद्र]। यज्ञ क्रिया आदिकाल से चली आ रही है। यज्ञ अनुष्ठान संसार हितों को ध्यान में रखते हुए किया जाता है, तब उससे पापों का नाश होता है। यह वचन स्वामी सुमेधानंद ने सेक्टर-14 के मकान नंबर 1306 में चल रहे श्रीमद भागवत कथा के दौरान कही।
उन्होंने कहा कि देव लोक ही नहीं देवा शत्रु जन भी यज्ञ का सहारा लेकर उनसे शक्तिशाली कहलाए गए हैं। यज्ञ आहुति से वायुमंडल में ऊर्जा आती है। वातावरण शुद्ध रहता है। मन और शरीर में सात्विक विचारों का संचार होता है।
स्वामी सुमेधानंद ने कहा कि पांच प्रकार के पाप तो हम नित्य कर डालते हैं। इन पांचों के प्रकार के पापों को हम होते हुए भी नहीं देख पाते, लेकिन अनजाने में जो पाप हो चुके हैं, उनका प्रायश्चित किए बिना हमें उसका बही खाता और बढाते चले जाते हैं। इसीलिए प्रभु शरण में प्रभु भक्ति करके इन पापों से नित्य मुक्ति लेनी चाहिए।
इस मौके पर आयोजित यज्ञ आहुति में लोगों ने घृत और पंच सामग्री आहुति देकर शुद्धिकरण करके पूजा अर्चना की। श्री कृष्ण आराधना के साथ सुबह 11 बजे श्रीमद भागवत कथा का समापन हुआ।
 

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

सनातन धर्म को अपमानित ना करो

वेसे तो सनातन धर्म का अपमान नही हो सकता क्यों की की वह मान समान सुख दुःख में भी वेसे का वेसा ही रहता है नीचे के चित्र को देखो किसी को कुछ और नजर आया था और मुझे क्या नजर आया 
 

पुणे विस्फोट : दो विदेशियों की मौत, 12 जख्मी

पुणे की जर्मन बेकरी में ब्लास्ट, नौ की मौत

 

पुणे में आतंकी ब्लास्ट, 10 मरे, 53 घायल

 

 













 
 
 
भगवान रजनीश की फोटो सुरक्षित रही 
पर वह अपने शिष्यों  को नही बचा पाए 
क्या शिष्यों का दुर्भाग्य रहा की उन्हों 
ने ऐसा ऐसा गुरु बनाया जो मुसीबत में काम नही आया ?
अथवा और कुछ?



boletobindas ने कहा…
ऐसा कुछ नहीं...सनातन धर्म के ज्ञानी को ऐसी बात शोभा नहीं देती....ये एक मानद त्रासदी है जिसमें मारने वाला किसी धर्म का नहीं....भगवान कुष्ण ने सभी यदुवंशियों को आपस में भिड़वा कर मौत के आगोश में भिजवा दिया था..क्यों..ये आपको पता ही है...
हाँ मित्र शयद आप ने सत्य ही कहा है | भगवान कृष्ण ने कुछ ऐसा ही किया था | शयद आप को जानकारी न हो या अज्ञानता ने ढंक लिया हो कि समर्थवान को नही कोई दोष गोसांई श्री कृष्ण को उन के  समर्थवान होने से ही तो भगवान  कहा जाता है | क्या भगवान ने इंद्र के कोप से बचाने को गोवर्धन पर्वत नही उठा लिया था ? परन्तु आचारीय रजनीश को भी उन के अनुयाई भगवान ओशो  मानते हैं , भगवान के रह ते ऐसी घटना अवश्य ही किसी अप्रिय कर्म कि और इंगित करती प्रतीत होती है . 
कृष्ण और द्रौपदी के बीच 'गलत' रिश्ता बताने पर विवाद
 बीजेपी ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का ध्यान एक ऐसी किताब की ओर आकर्षित किया है जिसमें श्रीकृष्ण और दौपदी के बीच संबंधों 
को गलत ढंग से पेश किया गया है और उसे आंध्र प्रदेश साहित्य अकादमी ने 2010 का साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा की है। 

बीजेपी की राष्ट्रीय महिला मोर्चा प्रभारी सुमित्रा महाजन के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति से मुलाकात कर इस किताब के बारे में जानकारी दी। प्रतिनिधिमंडल का आरोप है कि किताब में द्रौपदी के बारे में अश्लील बातें लिखी गई हैं और उसे वासना की प्रतिमूर्ति बताया गया है। किताब में श्रीकृष्ण का दौपदी के बारे में भी गलत भाव प्रस्तुत किया गया है। सुमित्रा महाजन ने इस किताब को पौराणिक और ऐतिहासिक ग्रंथों पर आघात बताया है।