रविवार, 4 अप्रैल 2010

gitaa,,,,गीता,,,,,,,

गीता को लोग इतना महत्वपूर्ण क्यों मानते हैं? असल में इस एक ही ग्रंथ के अनेक पहलू हैं। यह प्रत्येक समाज के लिए एक

पृथक समाज शास्त्र है, तो राजनायिकों के लिए 'राजनीति शास्त्र। यह संतों, महात्माओं, ज्ञानियों व जिज्ञासुओं के लिए अध्यात्म का ग्रंथ है। भक्तों के लिए भक्ति मार्ग का निर्देशक। और पूंजीवाद, समाजवाद तथा साम्यवाद जैसी व्यवस्थाओं के लिए नीति सूत्रों का संकलन। इसीलिए यह एक ज्ञान वर्दक ग्रन्थ  बन गया। इसीलिए पश्चिमी देशों के विद्वान भी मुक्त कंठ से इसकी प्रशंसा करते हैं। यह ग्रंथ गुरु- शिष्य की परंपरा पर आधारित नही है यदि ऐसा होता तो भगवान कृष्ण बड़े बड़े शूर वीरों और गुरु जनों को अर्जुन के हाथों ना मरवाते

गीता किसी संप्रदाय विशेष के लिए नहीं है, बल्कि संसार केसमस्तउन मनुष्यों के लिए है जो अपने जीवन को समझना चाहते हैं।इसमें चारों वर्णों  के  सर्व कालीन कर्म, ज्ञान तथा भक्ति योग के बारे में चर्चा है। इसके चौथे अध्याय में श्री कृष्ण कहते हैं कि संयत इन्द्रिय  होकर ज्ञान प्राप्ति में लगा हुआ श्रद्धावान प्राणी ही ज्ञान प्राप्त करता है और परम शांति को प्राप्त होता है। आगे कहते हैं, तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों से निष्कपट भाव से दंडवत प्रणाम तथा सेवा करके उस ज्ञान को जानना चाहिए।धरती पर जन्मे किसी भी गुरु या पुरुष को पूर्ण ज्ञान नही होता है ,तत्वज्ञानी होना तो बहुत दूर की बात होजाती है अरे मनुष्य तो यह भी नही जानता की वह शोचालय तक कितने कदम चल कर पहुंचा , दिली से गाज़िया बाद तक के रास्ते में कितने पेड़ आये !परमात्मा के पास एक दो नही पुरे ब्रह्मांड के जीवों का पूरा लेखा जोखा है ,अर्थात उन से बड़ा तत्व ज्ञानी ना कोई है और नाहोगा !

हम किताबें होते हुए भी पाठशाला जाते हैं विद्या अध्ययन के लिए, लेकिन इसी प्रकार गीता के इस आदेश का पालन नहीं कर पाते कि तत्वज्ञानी की शरण में जाकर 'ज्ञान' प्राप्त करें। इसी कारण हम उस 'ज्ञान' से प्राय: वंचित रह जाते हैं।

मनुष्य को सत् और असत् का भेद बताने वाली गीता का उद्भव वन में स्थिति किसी निर्जन आश्रम में किसी आचार्य द्वारा दिए गए उपदेश से नहीं जोड़ें । न यह हिमालय की कंदराओं में बैठे किसी तपस्वी की वाणी से फूटा। और न ही यह किसी गुरुकुल में दीक्षा देने वाले किसी कुलपति का भाषण है, बल्कि यह तो युद्घ के मैदान में दो विरोधी सेनाओं के बीच खड़े हो कर दिया गया उपदेश है। इस तरह यह जीवन सागर के पार उतरने के लिए कर्म ज्ञान है।

निष्काम कर्म का संदेशवाहक गीता 'फल की प्राप्ति की कामना नहीं करने की बात कह कर अनासक्ति की ओर ले जाती है। कृष्ण कहते हैं, न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्ति हो।
वे कर्म करने को कहते हैं। अकर्मण्य की तरह बैठने से मना करते हैं और अपना कर्त्तव्य पूरा करने को कहते हैं। वे कहते हैं, सुख-दुख, जय-पराजय, हानि-लाभ का विचार किए बिना युद्ध के लिए युद्ध करो अर्थात कर्म के लिए कर्म करो। ऐसा करने से कोई पाप नहीं लगेगा। यह है जीवन-समर का सत्य जिसे हमें हृदयंगम करना चाहिए।

और अंत में तो, कुछ भी यदि समझ में नहीं आता हो तो एक बहुत ही सरल व सहज बात कह दी श्रीकृष्ण ने - ढेर सारे धर्म हैं, कर्त्तव्य हैं, फर्ज हैं -इन सभी का परित्याग करके मेरी शरणागत हो जाओ। यह भक्ति का मूल दर्शन है। यानी ज्ञान मार्गी के लिए ज्ञान और भक्ति मार्गी के लिए समर्पण का सूत्र। कर्म मार्गी के लिए संघर्ष और कर्त्तव्य का दर्शन और अध्यात्मवादी के लिए अनासक्ति का निर्देश।माता पिता,भाई बन्धु,सखा मित्र यही भगवान का प्रतिनिधित्व करते है ,त्वमेव माता  पिता त्वमेव ,,,,,,,

 इस प्रकार से गीता संपूर्ण जीवन का, उसके सभी पक्षों का मार्ग दर्शक है। अलग-अलग क्षेत्रों के विद्वानों ने इसकी अलग-अलग ढंग से अलग-अलग संदर्भों में व्याख्या की है। जैसे कहते हैं, 'ज्ञान बिना नर सोहहिं ऐसे, लवण बिना बहु व्यंजन जैसे' -उसी प्रकार गीता के ज्ञान के बिना हमारे ज्ञान में कुछ कमी रह जाती है।जिसे गीता ही पूर्ण कर पाती है ?