शुक्रवार, 26 मार्च 2010

कबीर भगत कबीरदास - Kabirdas

कबीरदास - Kabirdas

कबीर के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए थे, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी।
कबीर के माता- पिता के विषय में एक राय निश्चित नहीं है कि कबीर "नीमा' और "नीरु' की वास्तविक संतान थे या नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था।  कहा जाता है कि नीरु जुलाहे को यह बच्चा लहरतारा ताल पर पड़ा पाया, जिसे वह अपने घर ले आया और उसका पालन-पोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया।

कबीर ने स्वयं को जुलाहे के रुप में प्रस्तुत किया है -
"जाति जुलाहा नाम कबीरा
बनि बनि फिरो उदासी।'


कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। ऐसा भी कहा जाता है कि कबीर जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म का ज्ञान हुआ।पचता नही क्यों की यह भी कहा जाता है की   एक दिन कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े थे, रामानन्द जी  उसी समय गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा।यदि कबीर जी मुसलमान होते राम राम ना कहते इतना बड़ा ज्ञानी कबीर धर्म परिवर्तन की सोच ही नही सकता था ,और रामानन्द जी किसी का धर्म परिवर्तन नही करवा सकते थे .क्यों की शस्त्र आज्ञा ही एसिहे की दुसरे का धर्म कितनाभी उतम क्यों ना हो उसे देख कर अपना धर्म नही बदलना चाहिए '
उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- `हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये'। अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदु-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फक़ीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया।
जनश्रुति के अनुसार कबीर के एक पुत्र कमल तथा पुत्री कमाली थी। इतने लोगों की परवरिश करने के लिये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था। साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था।

कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-
"कहत कबीर सुनहु रे लोई।
हरि बिन राखन हार न कोई।।'

कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे-
`मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।'

उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे।

कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं। विशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के ८४ ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड ने `हिंदुत्व' में ७१ पुस्तकें गिनायी हैं।
कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और सारवी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, व्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।इनको सिख पन्थ में इनकी वाणी को गुरु का द्र्जादियाग्या परन्तु कबीर जी को भगत का दर्जा मिला गुरु का दर्जा इन्होंने कभी नही स्वीकारा

कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं। यही तो मनुष्य के सर्वाधिक निकट रहते हैं। वे कभी कहते हैं-
`हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, `हरि जननी मैं बालक तोरा'
उस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे।

कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।
कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे।  वह न चाहकर भी, मगहर गए थे। वृद्धावस्था में यश और कीर्त्ति की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया। उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं। कबीर मगहर जाकर दु:खी थे:
"अबकहु राम कवन गति मोरी।
तजीले बनारस मति भई मोरी।।''

कहा जाता है कि कबीर के शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वे चाहते थे कि कबीर की मुक्ति न हो पाए, परंतु कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते थे:
"जौ काशी तन तजै कबीरा
तो रामै कौन निहोटा।''
अपने यात्रा क्रम में ही वे कालिंजर जिले के पिथौराबाद शहर में पहुँचे। वहाँ रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था। वहाँ के संत भगवान गोस्वामी जिज्ञासु साधक थे किंतु उनके तर्कों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था। संत कबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर किया-
`बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान।
करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।'
वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोये हुए गड्ढे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे ?
सारांश यह कि धर्म की जिज्ञासा सें प्रेरित हो कर भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो निकल आये और हरिव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में गिर कर अकेले निर्वासित हो कर ऐसी स्थिति में पड़ चुके हैं।
कबीर आडम्बरों के विरोधी थे। मूर्त्ति पूजा को लक्ष्य करती उनकी एक साखी है -
पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौंपहार।
था ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।
११९ वर्ष की अवस्था में मगहर में कबीर का देहांत हो गया। कबीरदास जी का व्यक्तित्व संत कवियों में अद्वितीय है। हिन्दी साहित्य के १२०० वर्षों के इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त इतना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व किसी कवि का नहीं है।सनातन विचारों में उनकी आस्था रही ,

विवाह पूर्व संबंध अपराध नहीं

विवाह पूर्व संबंध अपराध नहीं
नई दिल्ली, प्रेट्र : सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि लिव इन रिलेशनशिप (शादी से पहले साथ रहना) और यौन संबंध बनाना अपराध नहीं है। कोर्ट ने कहा कि कोई कानून दो बालिग लोगों को विवाह किए बगैर साथ रहने या यौन संबंध बनाने से नहीं रोक सकता। यह उनका अधिकार है। अदालत ने यह भी कहा कि पौराणिक हिंदू कथाओं के मुताबिक भगवान कृष्ण और राधा भी साथ रहते थे।
तो क्या सभी भोगी बाबाओं को क़ानून माफ़ कर देगा ?

बुधवार, 24 मार्च 2010

भगती

           भगती                                                                        






    























मंगलवार, 23 मार्च 2010

गुरु की जिम्मेदारी कहानी

ब्रह्मदत्त जिन दिनों काशी राज्य पर शासन करते थे, बोधिसत्व ने तक्षशिला नगर में एक बड़े शिल्पाचार्य के रूप में जन्म लिया। उनके यहॉं शिल्प विद्या का अध्ययन करने के लिए देश के कोने-कोने से कई राजकुमार आया करते थे।
तक्षशिला नगर के शिल्पाचार्य का यश सुनकर काशी नरेश ने भी अपने पुत्र को विद्याभ्यास के लिए उनके यहॉं भेजने का निर्णय किया। लेकिन सोलह वर्ष से कम उम्रवाले राजकुमार को अकेले दूर स्थित तक्षशिला में भेजना और वहॉं गुरु की सेवा-शुश्रूषा करते शिक्षा प्राप्त करना मंत्री और सामंतों को कतई पसंद न था।
इस विचार से सब ने कहा, ‘‘महाराज, शिल्प विद्या के कई पंडित हमारे ही नगर में हैं; ऐसी हालत में युवराजा को तक्षशिला क्यों भेजते हैं?’’
                                                                                पर राजा ने उनके सुझाव को न माना। उनका विचार था कि राजधानी में उनके पुत्र के लिए युवराजा के ओहदे पर रहते हुए शिल्प विद्या का अभ्यास करना मुमकिन न होगा।यों विचार कर राजा ने अपने पुत्र को एक जोड़ी खड़ाऊँ और ताड़-पत्रों वाला छाता मात्र देकर आदेश दिया, ‘‘तुम तक्षशिला जाकर वहॉं के शिल्पाचार्य के यहॉं शिक्षा प्राप्त करो। शिक्षा के समाप्त होते ही लौट आओ! उन्हें गुरु दक्षिणा के रूप में सौंपने के लिए एक हजार चांदी के सिक्के अपने साथ लेते जाओ।’’
                                                                  राजकुमार अपने पिता के आदेशानुसार अकेले चल पड़ा। बड़ी तक़लीफ़ें झेलकर आख़िर वह तक्षशिला पहुँचा।युवराजा ने शिल्पाचार्य के दर्शन करके अपने आने का उद्देश्य बताया। एक हज़ार चांदी के सिक्के उन्हें सौंपकर उन्होंने विद्याभ्यास शुरू किया।
थोड़े दिन बीत गये। गुरु और शिष्य रोज सवेरे नगर के बाहर नदी में स्नान करने जाते थे। एक दिन जब वे दोनों नहा रहे थे, तब एक बूढ़ी औरत थोड़े तिल पानी में धोकर नदी किनारे एक वस्त्र पर सुखाने लगी।राजकुमार तिल को देखते ही झटपट स्नान पूरा करके किनारे पर पहुँचा। बूढ़ी को असावधान देख मुट्ठी भर तिल मुँह में डाल लिया। बूढ़ी ने इसे भांप लिया, लेकिन वह चुप रह गई।
                                       दूसरे दिन भी राजकुमार ने ऐसा ही किया। बूढ़ी देखकर भी अनदेखी सी रह गई। तीसरे दिन भी राजकुमार ने मुट्ठी भर तिल खा लिया। इस पर बूढ़ी को उस युवक पर बड़ा गुस्सा आयाजब शिल्पाचार्य स्नान समाप्त कर नदी के किनारे पहुँचे, तब बूढ़ी औरत ने आचार्य से शिकायत की, ‘‘आचार्यजी, तीन दिन से बराबर आप का शिष्य मेरे तिल चुराकर खाता जा रहा है। तिल के नष्ट होने का मुझे दुख नहीं है, लेकिन उस युवक की चुराने की आदत मुझे अच्छी नहीं लगती। यह आप के यश में कलंक लगने की बात होगी। कृपया उसे ऐसा दण्ड दीजिए जिससे वह आइंदा ऐसी चोरी न करे।’’
घर लौटते ही शिल्पाचार्य ने राजकुमार की पीठ पर छड़ी से तीन बार मार कर कहा, ‘‘तुमने जो अनुचित कार्य किया है, उसके लिए यही सजा है! आइंदा तुम ऐसा काम बिलकुल न करो।’’राजकुमार को गुरु पर बड़ा क्रोध आया। लेकिन काशी राज्य की सीमा के बाहर वह एक साधारण व्यक्ति था, उसने सोचा। किन्तु उसने उसी व़क्त अपने मन में यह शपथ ली, ‘‘मेरे राजा बनने के बाद इस दुष्ट को किसी बहाने काशी राज्य में बुलवाकर जरूर इसकी जान ले लूँगा।’’कालक्रम में राजकुमार की शिक्षा समाप्त हुई। काशी लौटते व़क्त राजकुमार ने अपने गुरु को प्रणाम करके उनके आशीर्वाद लिये ।इसके बाद राजकुमार ने अपने गुरु से कहा, ‘‘आचार्यजी, मेरे राजा बनने के बाद आप को एक बार अवश्य काशी नगर में पधारना होगा। उस समय मैं उचित रीति से आपका सत्कार करना चाहता हूँ।’’ अपने शिष्य के निमंत्रण पर गुरु बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी।
                                              काशी नगर को लौटने के थोड़े साल बाद राजकुमार का राज्याभिषेक हुआ। एक दिन उसे अपने गुरु की बात याद आई । उसी व़क्त उसने अपने एक नौकर को बुलाकर आज्ञा दी, ‘‘तुम तक्षशिला जाकर शिल्पाचार्य के दर्शन कर उन्हें मेरा यह निमंत्रण-पत्र सौंप दो।’’शिल्पाचार्य निमंत्रण पाकर भी तुरंत काशी के लिए रवाना न हुए। उन्होंने सोचा कि राजा गद्दी पाने के शौक में होगा। राज्य-भार का उसे अनुभव होने के बाद मिलना उचित होगा।इसी निर्णय के अनुसार शिल्पाचार्य थोड़े दिन बाद काशी नगर पहुँचे । राजा के गुरु के आने का समाचार सुनकर सभासदों ने शिल्पाचार्य के प्रति बड़ा आदर भाव दिखाया और उन्हें एक ऊँचे आसन पर बिठाया।
गुरु को देखते ही राजा को अपना पुराना क्रोध याद हो आया । उसने गुरु की ओर तीक्ष्ण दृष्टि डालकर पूछा, ‘‘मुट्ठी भर तिल खाने पर दण्ड देनेवाले को हाथ में आने पर कहीं प्राणों के साथ छोड़ दिया जाता है?’’


राजा ने सोचा कि सभासदों की समझ में न आनेवाले ढंग से शिल्पाचार्य के मन में मौत का डर पैदा कर फिर सुविधानुसार वह उसे मार डालेगा। लेकिन शिल्पाचार्य डरे नहीं। उल्टे उन्होंने राजा का रहस्य इस रूप में प्रकट किया, ‘‘हे राजन, जब तुम मेरी जिम्मेदारी के अधीन शिष्य थे, तब तुमने अपने ओहदे के विपरीत काम किया। शिष्य के दुष्टतापूर्ण व्यवहार पर दण्ड देकर उसे अच्छे पथ पर लाना गुरु का कर्तव्य है। अगर उस दिन मैंने तुम्हें दण्ड न दिया होता तो तुम आज राजा नहीं डाकू बन गये होते। बुद्धिमान लोग जब कोई अपराध करते हैं, तब वे दण्ड देनेवालों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं।’’
                                                       इस पर असली बात सभासदों पर प्रकट हो गई। राजा का अपमान हुआ। वह गुरु के पैरों पर गिरकर बोला, ‘‘महानुभाव, एक बार और आप ने मुझे गलत मार्ग से हटा कर सही रास्ते पर लगाया। मैं आप के प्रति हमेशा के लिए कृतज्ञ हूँ!’’ राजा के भीतर यह परिवर्तन देख सभासदों के साथ गुरु भी बहुत ख़ुश हुए।
इसके बाद राजा के अनुरोध पर शिल्पाचार्य ने अपना निवास तक्षशिला से काशी बदल लिया और दरबारी आचार्य के पद पर रहते हुए राजा को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते रहे।

गुरुवार, 18 मार्च 2010

तलाक की प्रथा














सनातन धर्म में तलाक की प्रथा को बुरा माना जाता है .सात फेरों के बाद के तलाक में पुनः विवाह करने की इजाजत भी नही हें
एक पत्नी के होते दूसरी पत्नी लाने का भी कोई नियम नही है.इसे घटिया किस्म का कर्ममाना जाता है .
सनातन विचार को यदि  देखा जावे तो सारी बात समझ में आ जाती है .जो सनातनी पुरुष पत्नी को त्यागता है वह पत्नी को धोखा देने का अपराधी बनता है .यदि वही पति दुबारा शादी कर लेता है तो उस पर व्यभिचारी  होने को आरोप लगता है .यदि उस की पत्नी दूसरी शादी कर लेती है ,तो यह आरोप आत़ा हें की यह पुरुष अपनी पत्नी से व्यभिचार करवाता है
तलाक की नोबत तब आती है जब पत्नी को उस के मायके का ताना सुनना पड़े ...........................
कुंडली का सही मिलान नाहो ..........................................................................................
सही महूर्त पर फेरे ना हुए हों ..............................................................................................
शादी को एक सात्विक यज्ञ  माना जाता है ,यदि इस यज्ञ में मदिरा और तामसी भोजन का प्रयोग हो तब भी यह दोष आत़ा है .
शादी में ली गयी शपथ को तोड़ने का भी यही दोष होता है.
शादी करवाने वाले ब्राह्मण से तकरार

बुधवार, 17 मार्च 2010

नयां दो दिन पुराना सो दिन

इस धरती पर दो ही परम्परा प्रचलन में रही हैं- ब्राह्मण और श्रमण। यह कहना कि ब्राह्मण परम्परा सर्वाधिक प्राचीन है तो बात अधूरी होगी और यह भी सही नहीं कि श्रमण पहले हुए। बस इतना समझ लें कि इन्हीं से ईश्वरवादी और अनिश्वरवादी धर्मों की उत्पत्ति हुई है।वास्तव में ब्रह्मा जिनको सृष्टि का निर्माता कहा जाता है .|वेद उन्ही की कस्टडी में रहे ,



चाहे हिंदू, पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम हो या फिर चर्वाक, जैन, शिंतो, कन्फ्यु‍शियस या बौद्ध हो, आज धरती पर जितने भी धर्म हैं, उन सभी का आधार यही प्राचीन परम्परा रही है। इसी परम्परा ने वेद लिखे और इसी से जिनवाद की शुरुआत हुई। यही परम्परा आगे चलकर आज हिंदू, जैन और बौद्ध धर्म कहलाती है।जैन-और बुध कोई धर्म धर्म नही थे यदि निष्पक्ष भाव से विचार किया जावे तो यह साबित हो जाता है की जैनियों के निर्माण करता भी वही ब्रह्मा जी ही रहे | हजारों वर्षों के इस सफर में इस परम्परा ने बहुत कुछ खोया और इसमें बहुत कुछ बदला गया। आज जिस रूप में यह परम्परा है यह बहुत ही चिंतनीय विषय होगा, उनके लिए जो इस परम्परा के जानकार हैं।

अरिष्टनेमि और कृष्ण तक तो यह परम्परा इस तरह साथ-साथ चली कि इनके फर्क को समझना आमजन के लिए कठिन ही था लेकिन बस यहीं से धर्म के व्य‍वस्थीकरण की शुरुआत हुई तो फिर सब कुछ अलग-अलग होता गया।जिनमे प्रमुख हिन्दू,मुस्लिम,सिख ,इसाई,ही सनातनी धर्म नजर आते हैं ,शेष सभी धर्मों को परिवर्तित धर्म कहा जा सकता है ,जिन को लेकर धर्म परिवर्तन की बहस होती है वही लोग धर्म परिवर्तन कर मिशन,समाज आदि आज भी बना रहे हैं

ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को ही मोक्ष का आधार मानता हो और वेद वाक्य को ही ब्रह्म वाक्य मानता हो। ब्राह्मणों अनुसार ब्रह्म, और ब्रह्मांड को जानना आवश्यक है तभी ब्रह्मलीन होने का मार्ग खुलता है। श्रमण वह जो श्रम द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को मानता हो और जिसके लिए व्यक्ति के जीवन में ईश्वर की नहीं श्रम की आवश्यकता है। श्रमण परम्परा तथा संप्रदायों का उल्लेख प्राचीन बौद्ध तथा जैन धर्मग्रंथों में मिलता है तथा ब्राह्मण परम्परा का उल्लेख वेद, उपनिषद और स्मृतियों में मिलता है।

आज ब्राह्मण और श्रमण शब्द के अर्थ बदल गए हैं। यह जातिसूचक शब्द से ज्यादा कुछ नहीं। उक्त शब्दों को नहीं समझने के कारण अब इनकी गरिमा नहीं रही। दरअसल यह उन ऋषि-मुनियों की परम्परा या मार्ग का नाम था जिस पर चलकर सभी धर्म और जाति के लोगों ने मोक्ष को पाया। यह ऐसा ही है कि हम ऋषि और मुनि नाम की कोई जाति निर्मित कर लें और फिर उक्त शब्दों की गरिमा को भी खत्म कर दें।

यहाँ यह कहना भी जरूरी है कि उक्त दोनों परम्परा को जितना नुकसान इस परम्परा को मानने वालों से हुआ उतना ही नुकसान इस परम्परा को तोड़-मरोड़कर एक नई परम्परा को गढ़ने वालों से भी हुआ। इस सबके बीच कुछ लोग थे जिन्होंने उक्त परम्परा को उसके मूल रूप में बचाए रखा। अतः आज पुराने को मान ने की आवश्यकता है ,ना की नये की |कहावत  भी  तो  है नयां दो दिन पुराना सो दिन |

मंगलवार, 16 मार्च 2010

कुरान शरीफ हिन्दी में (Quraan in Hindi)

http://quran-in-hindi.blogspot.com/2009/05/quraan-in-hindi.html          

एक मित्र का ब्लॉग

सूरह अल-बकरा


सूरह फ़ातिहा

आपकी क्या क्या राये हें मित्र

▼ 2009 (2) मुहम्मद (आप पर शान्ति हो) का परिचय:
http://seeratacademy.blogspot.com/       लिंक          

▼ March (2)

मुहम्मद (आप पर शान्ति हो) के बारे में:

मुहम्मद (आप पर शान्ति हो) का परिचय:
▼ 2009 (2)

▼ March (2)

मुहम्मद (आप पर शान्ति हो) के बारे में:

मुहम्मद (आप पर शान्ति हो) का परिचय:

सोमवार, 15 मार्च 2010

सनातन धर्म का एक नियम यह भी देखें

सनातन धर्म का एक नियम यह भी देखें
छुआ-छूत की बात तो समझ में आती है,परन्तु जाती-पाती की बात समझ में नही आती यहीं देख कर कुछ समझ लो

यह जानवरों की जातियां आपस में प्रेम पूर्वक रह कर मोज-मस्ती कर रही हैं    








और यह जाती खुद को महाराजा हरीश चन्द्र बताते नही थकते किसी ने इन की करतूतों से दुखी हो इन को यह उपाधि दे डाली है जिसे यह सरपर लगाये घूम रहे हैं
















अब इस जाती को भी देखो दूसरों को नसीहत खुद की फ्सिह्त हम अपने कानून को नही मानते .तो हमारे लिए सनातन भगवान का कानून किस खेत की मुली है

रविवार, 14 मार्च 2010

सनातन धर्म में नारी

ओरत को पूजनीय होने का दर्जा सनातन धर्म ने दिया हुआ है ,कलयुग हे,ओरत को पसंद नही की उसे पूजा जावे ,वह तो अपनी स्तुति युगों-युगों से करवाने के पक्ष में रही है ,गीता का मजाक ही समझ लो ,क्या स्वार्थी मर्द किसी के हाथ में अपना घर परिवार सोंप सकता है? नही |परन्तु ओरत में ही वो शक्ति है जिसके वशीभूत हो मनुष्य उसे अपना सबकुछ देने को तयार हो जाता है उदाहरण के रूप में दादी माँ को ही देख लें ,घर की मालकिन होती है ,जब ओरत ही अपना सनातन संस्कार भूल गयी ,तब उसे अपना आप असुरक्षित नजर आने लगा .शादी के 7 फेरों  में  ओरत को ब्राह्मिण द्वारा शिक्षा दी जाती है की पति के शुभ कमों का आधा तुमको मिले गा पर पति के बुरे कर्मों में से तुमको भोगने के लिए कुछ नही मिले गा ओरत को यह बात नही पची ,पति शराबी कबाबी पहलेसे था नही था तो हो गया  ,दुःख सुख के आने पर ओरत घबरा गयी ,अनाप शनाप धर्म गुरुओं की शरण जा पड़ी ,वहाँ भी उस को यही  बतावा गया हो गा की पति ही परमेश्वर होता है ,वह फिर भी नही मानती कि पति परमेश्वर हो सकता है ,फिर जो हुआ बाबा लोग महिला केरूप कि आग में भस्म होने लगे , रामायण से यह सिखा जा सकता है कि अति कि सुन्दरता और पति से व्यर्थ कि जिद तथा देवर कि बात ना मानने से ही सीता जी का रावण ने अपहरण किया था ,मेरी समस्त धर्मों क़ी महिला साथियों से बनती हें ,अपनी अंतरात्मा क़ी आवाज सुने क्या वो सीता जेसी हैं?
                                                 तभी तो किसी ने कहा है
                                                      तू कोन है तेरा नाम है क्या , सिताभी यहाँ बदनाम हुई
  यदि आज धर्म गुरु खुल कर कहने लगे हैं क़ी ओरत मन्दिर तीर्थ में अपने परिवारिक सदस्यों के साथ जाए, या ओरत अछे संस्कारों से युक्त बचे पैदा करे तो इन पड़े लिखे खुद को सभय कहने वाले समाज को दिक्त क्या है ?क्या वह ओरत को बेपर्दा कर उपरोक्त दोषों को आमंत्रित नही कर रहे ?

शनिवार, 13 मार्च 2010

दो मित्रों की नोटंकी

ज्योतिष विद्या है कोई आध्यात्म नही संसार की हर विद्या को उस का पड़ा -लिखा विद्वान अपनी आयू के एक पडाव पर आ कर भूल जाता है ;परन्तु एक मात्र आध्यात्मिक विद्या ही ऐसी विद्या है जिस के द्वारा  प्राप्त ज्ञान कभी भी समाप्त नही होता है ,पहली कक्षा में पड़ा गया क,ख,ग,दसवी बी.ऐ ,.एम .ऐ पड़ा लिखा भी भूल जाता है ,आज के विज्ञान और टेक्नालोजी को टी.वी पर शर्मशार  होते दिखाया गया ,चंद पड़े -लिखे अन्पड ,इकठे हुए एक चेनल पर और बिना अपनी गिरेहबान में झांके उस सनातन ज्योतिस विद्या का मजाक बनाने लगे ,कार्य-क्रम कुछ इसी तरह आगे बड़ता है ,कुंडली का लाइव टेस्ट ,इस के लाइव टेस्ट को ज्योतिषी करते तो कुछ बात भी बनती उनको तो उन्ही की परीक्षा के लिए बुलाया गया था ,जो ज्योतिषी आये थे वह भी शायद चंद रुपयों की खातिर इस विद्या को बदनाम करने का ठेका कर के गये हुए थे ,यानी दो मित्रों की नोटंकी ,आधुनिक विज्ञान बनाम वह ज्योतिष विज्ञान जिसकी शोध पर सदियों से कोई कामही नही किया गया, मुर्ख विज्ञानी भयभीत हुआ खुद को इस ज्योतिष विद्या से सुचा सचा साबित करने पर तुला हुआ नजर आया ,और ग्रहों के ज्योतिषीय आधार को नकारता ही नजर आया .क्या आधुनिक विज्ञानिक विचार करगा ?
                1 टिटनस-टोकसाइड  के इंजेक्शन या रेबीज के इंजेक्शन एक विशेष टेम्प्रेचर पर रखे जाने चाहिए ,परन्तु निर्माता से बिक्रेता और फिर उप भोक्ता तक पहुचते पहुचते यह विज्ञान के नियमानुसार मृत्य हो जाता हें ,जिसको लगाना या लगवाना मुर्खता नही तो और क्या है?
                                         इस लिए प्रिये आधुनिक विज्ञानिक भाइयो जरा विचार तो करो जिस के ज्योतिषीय विज्ञान का आप कोई मजाक बनाते है क्या उसी का कोई प्रभाव तो नही जो आप के एक्सपायर इंजेक्शन को लगवाने के बाद भी मनुष्य जाती का कोई अनिष्ट करने के योग्य नही रहता
                2 मिलावट
                3 अशुद्धता
                क्या इन पर विचार की आपको आवश्यकता नही?

चमत्कार को नमश्कार

चमत्कार को नमश्कार

गुरुवार, 11 मार्च 2010

सनातन हिंदुत्व






सनातन हिंदुत्व


ईसामसीह ईसाई धर्म के प्रवर्तक हैं । हजरत मुहम्मद इस्लाम के पैगम्बर माने जाते हैं । किन्तु हिन्दुत्व का न तो कोई प्रवर्तक है और न ही पैगम्बर । हिन्दुत्व एक सनातन  व्यवस्था है जिसमें विभिन्न मतों के सह-अस्तित्व पर बल दिया गया है । किसी को किसी एक पुस्तक में लिखी बातों पर ही विश्वास कर लेने के लिए विवश नहीं किया गया है । हिन्दू धर्म में फतवा जारी करने की कोई व्यवस्था नहीं है । यह उदारता और सहनशीलता पर आधारित धर्म है ।आदि काल से इसे ईश्वर ही स्थापित करते आये हैं चिन्तन मनन श्रवन द्वारा इस की पवित्र पुस्तकों के भाव को तत्व से जान्ने वालों को हिन्दू कहा गया है |

बुधवार, 10 मार्च 2010

गीता के अस्तित्व को खतरा

गीता के अस्तित्व को खतरा
वर्ण संकर पर मंडराता खतरा


अर्जुन द्वारा कही बातों को भी समझ ने की जरूरत हे अर्जुन का प्रश्न था कि अपने कुटुंब को मार कर केसे सुखी रह सकते हे ?और ख़ुद ही विचार भी करते हें लोभ -भ्रष्टचित हुए ये लोग ये लोग कुल के नाश उत्पन दोष और मित्र से विरोध करने में पाप को नही देखते (यही अभी हो रहा हे )कुल के नाश से उत्पन दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हट ने के लिए विचार क्यों नही कर न चाहिए ? आइये इसी पर पहले विचार किवा जाए ज्योतिष को वेदों का नेत्र कहा जाता हे ,वेदों के नेत्र का प्रयोग करने से पितृ दोष नजर में आता हे ,पत्र दोष में किसी ऐसे सम्बन्धी मित्र बन्धु-बांधव कि मृतु बाद प्राप्त जयेदाद जो उस के बाद हमे प्राप्त हो जाती हे भोगने से जो दोष आता हे ,इस दोष का उपचार जीव कि गति होने से ही होता हे जिस के लिए श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध और तर्पण कि प्रचलित विद्धि हे दोह्स उत्पन होने पर परिवार कि वृधी रुक जाती हे (आज हम -दो ,हमारे दो पारिवारिक वृधी ख़ुद ही रुक रही हे ) भयंकर दोष तो भारत में आ ही चुका हे आगे अर्जुन ख़ुद ही इस का जवाब देते हे कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हे धर्म के नाश से सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत बड जाते हें पाप बड़ने से कुल कि जनानियां दूषित हो जाती हें इन के खराब होने से परिवारों में (दोगले बचे पैदा होते हें )वर्ण -संकरता उत्पन हो ती हे वर्ण संकर कुल घातियों(इन गुरुओं-जो पति परमेश्वर के अधिकारों से पति को वंचित कर ख़ुद उस के अधिकारों को भोगता हे )और ऐसे कुल को नर्क में ले जाने के लिए काफी होता हे श्राद्ध-पिंड दान आदि से वंचित पितृ लोग अधोगति को प्राप्त हो जाते हे फिर वही पितृ तंग करते हें हम ढोंगी बाबाओं के चक्र में पड़अपना आप नाश कर लेते हें जिस-जिस का कुल धर्म नष्ट हो गया हे ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काळ तक नरकों में वास होता हे ऐसा हम सुना करते हें इस तरह के कटू सत्य को जान अर्जुन युद्घ के मैदान को हार कर त्यागने का मन बनाते हे वह भूल जाते हे कि जो भगवान के रथ पर रहते हें भगवान उन्ही कि मदद करते हें दुसरे अध्याये से भगवान अपना मुह खोल अर्जुन कि इस जिज्ञासा को शांत ही नही करते बलिक दर्शन भी देते हें (गीता)
प्रारम्भ करने से पहले अर्जुन कृष्ण को कह रहे थे ,नही कमाना राज्य ऐसा जिसमे सने खून से हाथ हों ,अपनों को मारू नही भाता ,क्यों नही अछा इससे पकड़ कटोरा भीख मांग लेता /नही करना युद्घ मुझ को इस से बेहतर रण में मरना होगा |गांडीव त्याग जब बेठ गया अर्जुन तब कृष्ण ने मुह खोला -----------------------हे अर्जुन तुझे असमय में ऐसा मोह क्यों हुआ ?क्यों की तो श्रेष्ट पुरुषों द्वारा ऐसा होना चाहिये इससे तेरी कीर्ति होगी मिले गा स्वर्ग इस लिए मनकी कमजोरी को त्याग और युद्घ के लिए तयार  हो|

रविवार, 7 मार्च 2010

धूर्त बाबाओं की जमात

इस बाबा पर मानसिक रुप से बीमार लड़की को अगवा करने का संगीन आरोप 
है।
इस बाबा पर मानसिक रुप से बीमार लड़की को अगवा करने का संगीन आरोप है।
         
बाबा रामदेव ने पिछले दो साल से पतंजलि योगपीठ हरिद्वार और गंगामुक्ति अभियान के नाम पर संतों को एक साथ लाने की कोशिशें कीं। उन्हें थोड़ी कामयाबी भी मिली है। पिछले साल हरिद्वार में हुए सम्मेलन में भाग लेने के बाद दिल्ली के एक बाबा ने कहा था कि शिष्य भी अब एक महात्मा तक कहाँ सीमित रहे। वे भी चार-पाँच गुरु बनाने लगे हैं और हर जगह अपना निवेश करने लगे हैं। हमें भी रंग-ढंग बदलना पड़ेगा वरना अपने ही आश्रम तक सीमित रह जाएँगे। 
 इन दिनों एक ही मंच पर थोड़ी देर के लिए साथ बैठने का चलन इसलिए भी शुरू हुआ है कि कुछ धर्मगुरु गीता, भागवत और वेदांत के आधार पर प्रबंधन सिखाने लगे हैं। अपना उद्योग चलाते हुए दूसरी प्रतिस्पर्द्धी कंपनियों में हिस्सेदारी रखना और वहाँ से भी लाभ कमाना प्रबंधन का नया फंडा है। मुंबई के स्वामी पार्थसारथी, जया राव और चिन्मय मिशन के स्वामी सुबोधनंद का मानना है कि धर्मगुरुओं को भी मिलजुल कर काम करना चाहिए। किसी जमाने में विश्व हिंदू परिषद ने साधु-संतों को एक मंच पर लाने की कोशिश की थी। शुरुआती दिनों में यह प्रयोग चारों शंकाराचार्य, जैन, बौद्ध और सिख पंथ के सम्मुख विफल रहा। तब व्यावसायिक या धार्मिक सामाजिक कारण आज की तरह प्रबल नहीं हुए थे। 
                                                  कुछ वर्ष पहले दिल्लीके छतरपुर मंदिर के नाम से प्रसिद्ध आद्यशक्ति कात्यायनी पीठ में एक संत-सम्मेलन हुआ था उसमें आसाराम बापू के अलावा एक निवर्तमान शंकाराचार्य और एक अन्य स्वामी भी बुलाए गए थे। आसाराम बापू के शिष्यों की संख्या ज्यादा थी। बापू को कहीं जाना था। उनका प्रवचन पहले करवा दिया गया और प्रवचन होते ही बापू उठकर चलते बने। चलते-चलते उन्होंने चुटकी बजाई और उनके शिष्य भी उठकर चले गए। 
भगवान के वचनों को सुनने कोई नही आता जो आता हे इन पाखंडियों को सुनने ही आता है .इस बात को जानते हुए यह लोग अपने अपने शिष्यों की अलग-अलग जमातें बना अपना शक्ति प्रदर्शन नही करते तो और क्या करते हैं ?

सनातन धर्म में आम और ख़ास गलतियाँ

सनातन धर्म में आम और ख़ास गलतियाँ 
जगत के गुरु ब्राह्मिण ब्राह्मिण का गुरु सन्यासी ,आजका सन्यासी होगया ग्रहस्थी वह अपने कर्मों को भूल गया ,ब्राह्मिण मुर्ख हो गया .जब जगत का गुरु मुर्ख हो गा तब तब धरती पर कष्ट बड़े गा ,इस बड़े कष्ट को सिवा भगवान के कोन हरे गा?मुदा है जन कल्याण का जो तब तक आगेनही बड़े गा जब तक अपने कल्याण की बात सोची जाती रहे गी.अपने बड़पन किहि सोच होगी .हर शिक्षक धर्म गुरु और ब्राह्मिण लालच को नही त्यागे गा .धर्मगुरु खुद को भगवान मानने की भूल में जीते  रहें गे .शास्त्रों की आज्ञा के भाव जबतक जन जन नही जाने गा तबतक एक शिक्षित समाज की कोरी कल्पना में ही जीना होगा .या डिग्री प्राप्त अन्पड-गवारों को ही शिक्षित समझा जाता रहे गा जिस का फल अशुभ-अति अशुभ ही होना है.उजैन के मन्दिर में एक जगत के गुरु ब्राह्मिण जी गोविंदा नामक ड्रामे बाज व्यक्ति की पत्नी से ज्योतिर्लिंग की सेवा करवा रहे हैं  .जबकि शस्त्र आज्ञा ही नही है की पत्नी के अतिरिक्त 

किसी दुसरे की पत्नी को लिंग की सेवा करने का अधिकार प्राप्त हो.परन्तु जगत गुरु स्वार्थी हो दक्षिणा के चक्र में ऐसा अशोभनीय पाप कर्म सुनीता से करवाते देखे जा सकते हैं ,मुदा तो होना चाहिये शास्त्र आज्ञा को जान्ने की ना, क़ि इस तरहा  का कर्म कर और करवा कर दुसरे लोगों को गुमराह करने और अपना पेट भरने की,शिक्षित समाज के लिए जरूरी होता जा रहा है शास्त्रों की  आज्ञा केभावों को तत्व से जान्ने का .

शनिवार, 6 मार्च 2010

ऑपरेशन अधर्म

कानून इन बाबाओं पर हाथ नहीं डालता क्योंकि इस अधर्मी के हाथ कानून से
 भी लंबे हैं।
कानून इन बाबाओं पर हाथ नहीं डालता क्योंकि इस अधर्मी के हाथ कानून से भी लंबे हैं।
ऑपरेशन अधर्म के 6 चेहरे

धर्म की आड़ में पाखंडी बाबाओं के बदनुमा चेहरे

कानून इन बाबाओं पर हाथ नहीं डालता क्योंकि इस अधर्मी के हाथ कानून से
 भी लंबे हैं।
कानून इन बाबाओं पर हाथ नहीं डालता क्योंकि इस अधर्मी के हाथ कानून से भी लंबे हैं।

स्पीड न्यूज: देखें शनिवार की सभी बड़ी खबरें

अन्य पाखंडी बाबा पर रखो नजर 

योग से सत्ता की और बाबा रामदेव का सफर....

क्या योगी और सन्यासियों को पेट पालने के लिए अरबों-खरबों रुपयों की जरूरत होती हे ?या सर छुपाने को कुटिया की जगहा भव्य आश्रमों की?

ढोंगी बाबा रामदेव की असलियत (पन्नो से) अन्तिम कड़ी !

 

योगी से भोगी बनते बाबा रामदेव की दास्ताँ जारी..........

 

बाबा राम देव और इंडिया न्यूज़ पत्रिका....

ठग रामदेव के दुस्साहस की दास्ताँ (जारी)........

योग को भोग का साधन बनाया रामदेव ने ( जारी).....

आर्य समाज इस समय विवादग्रस्त

 

बेपर्दा ! सन्त-महात्मा कितना सच

जगत का स्वामी भगवान पत्नी का स्वामी पति यह संत महंत किसके स्वामी?

किसी जमाने में साधू संत जंगलों में कन्दराओं में रहा करते थे .भूमि उनका बिस्तर आकाश चादर हुआ करती थी .वह थे सचे - सुचे संत महात्मा पेडके नीचे बात की उन्हों ने तपस्या आज के भोगी खुद को गुरु या स्वामी कहलवाते हैं ,स्वामी होता है क्या , क्या वह बता पाते हैं ?खुद को बताते जो गुरु कहाँ के वह ग्यानी पहिचान लो उनको क्या होती है  उन की निशानी .जिसे यही नही पता .जिस स्टेज पर वह जा बेठा ,कितने कदम चल कर आया है .सोचो उसका ज्ञान क्या पार लगाएगा ,खुद तो वह डूबेगा ओरों कोभी मरवाए गा 
अगर आप कोई कमेन्ट देते हैं कभी मीडिया को तो जान लीजिये केसा जवाब आए गा       
            

कमेंट भेजने के लिए धन्यवाद

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सनातन धर्म विरोधी जगत गुरु कृपाचारिया बाबा

सनातन  धर्म विरोधी जगत गुरु कृपाचारिया बाबा
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ये छोटा-मोटा भंडारा नहीं होगा इसके लिए करीब 10 हजार लोगों को 
निमंत्रण भी दिया गया है।
ये छोटा-मोटा भंडारा नहीं होगा इसके लिए करीब 10 हजार लोगों को निमंत्रण भी दिया गया है।
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मथुरा। कृपालु महाराज के भंडारे में भगदड़ मचने से 63 लोगों की जान चली गई लेकिन शायद कृपालु महाराज को इससे कोई लेना देना नहीं है। तभी तो हादसे के दो दिन बाद ही उन्होंने वृंदावन में एक और भंडारा रख लिया। ये भंडारा भी कोई छोटा-मोटा भंडारा नहीं है बल्कि इसके लिए करीब 10 हजार लोगों को निमंत्रण भी दिया गया।
वृन्दावन में जगदगुरु धाम कृपालु महाराज का आश्रम है। यहां भंडारे को देखकर कहीं से नहीं लगता कि प्रतापगढ़ के कुंडा में कृपालु आश्रम में मची भगदड़ का यहां जरा भी असर पड़ा है। कुंडा के कृपालु आश्रम में 63 लोगों की मौत हो गई लेकिन इसके बावजूद वृंदावन में विशाल भंडारा हुआ। यही नहीं प्रशासन की मनाही के बावजूद साधुओं को नोटों के लिफाफे बांटे गए।
हैरानी की बात ये है कि इस बार भी भंडारे के लिए प्रशासन से इजाजत नहीं ली गई है। जब इसके लिए आश्रम प्रवक्ता से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि अगर किसी के घर में कोई फंक्शन हो तो उसके लिए इजाजत नहीं ली जाती। हालांकि स्थानीय प्रशासन ने अपनी तरफ से तैयारी शुरू कर दी हैं क्योंकि कुंडा में मची भगदड़ के बाद प्रशासन किसी तरह की कोताही बरतने के लिए तैयार नहीं है।
आश्रम के रवैये से साफ है कि दो दिन पहले हुए हादसों से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन शायद वो ये भूल गए हैं कि जिन श्रद्धालुओं के प्रति वो इतनी बेरुखी दिखा रहे हैं अगर उन्होंने ही साथ छोड़ दिया तो फिर ये तामझाम खत्म होते देर नहीं लगेगी। वैसे इस बार नजर पुलिस और प्रशासन की तरफ भी है कि क्या बिना उनकी सहमति के इस तरह के भंडारे की इजाजत दी जानी चाहिए या नहीं
यह केसे कृपालु केसे ग्यानी जिन्होंने ,वेद की ही नही मानी सनातन धर्म यह कहता है ,श्राद्ध का भी कोई विधि विधान है ,श्राद्ध की तीथ सप्ताह में दो बार आती नही ,जिसे यही ज्ञान नही वह कोई गुरु नही दम्भी है,गलत मार्ग दिखाने में माहिर है|

बुधवार, 3 मार्च 2010

यह है धर्म-रक्षा

 
 
विश्व हिन्दू परिषद के नेता लोग भगवान श्री कृष्ण के आसन से ऊँचे आसन पर भगवान की और पीठ कर के धर्म कार्यक्रम को अमली जामा पहना ने के लिए धर्म रक्षा निधि कारिय-कर्म  करते हुए
इधर देखो एक और धर्म रक्षा भगवान श्री कृष्ण ने ग्वालों की रक्षा हेतु पर्वत को अपने हाथ की सबसे छोटी अंगुली पर उठा कर खुद  को  धर्म गुरु बनालिया था आज के धर्म गुरु का यह रूप भी समझने का प्रयास करें 

प्रतापगढ़ः कृपालु महाराज के आश्रम में भगदड़, 50 मरे

कृपालु महाराज के भंडारे में भगदड़, 50 मरे

प्रतापगढ़ः कृपालु महाराज के आश्रम में भगदड़, 30 मरे

यूपीः मंदिर में भगदड़, 60 से ज्यादा की मौत

 

कृपालु महाराज के आश्रम में भगदड़, 60 मरे

ध्यान से देखें यह सन्यासी हें या कोई राजा? 


अनुगीता

अनुगीता - अध्याय १


सभायां वसतोस्तस्यां निहात्यारीन्माहात्मनोः।

केशवार्जुनयोः का नु कथा समभवद्द्विज॥१॥

जनमेजय बोले

हे द्विज! शत्रुओं को मारकर उस भवन में बैठे हुए उन महात्माओं कृष्ण और अर्जुन में क्या बात हुई?



वैशंपायन उवाच

कृष्णेन सहितः पार्थः स्वराज्यं प्राप्य केवलम्।

तस्यां सभायां रम्यायां विजहार मुदा युतः॥२॥

वैशंपायन बोले

पार्थ ने अपना राज्य पाकर, उस रम्य भवन में कृष्ण के साथ मुदित मन से विहार किया।



ततः कंचित्सभोद्देशं स्वर्गोद्देशसमं नृप।

यदृच्छया तौ मुदितौ जग्मतुः स्वजनावृतौ॥३॥

हे नृप! तब मुदित मन से विहार करते हुए, स्वजनों से घिरे हुए वे दोनों भवन के एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जो स्वर्ग के समान था।



ततः प्रतीतः कृष्णेन सहितः पाण्डवोऽर्जुनः।

निरीक्ष्य तां सभां रम्यामिदं वचनमब्रवीत्॥४॥

तब कृष्ण के साथ उस सुन्दर भवन को देखकर प्रसन्न पाण्डव, अर्जुन ने यह शब्द कहे।



विदितं ते महाबाहो संग्रामे समुपस्थिते।

माहात्म्यं देवकीमातस्तच्च ते रूपमैश्वरम्॥५॥

हे महाबाहो! हे देवकी के पुत्र! युद्ध के शुरु होने पर आपका जो माहात्म्य मैंने जाना था और जो ऐश्वर्य से परिपूर्ण रूप मैंने देखा था, वो मुझे याद है।



यत्तु तद्भवता प्रोक्तं तदा केशव सौहृदात्।

तत्सर्वं पुरुषव्याघ्र नष्टं मे नष्टचेतसः॥६॥

हे पुरुषव्याघ्र! पर जो उस समय आपके द्वारा सौहार्द से बताया गया था, वह सबकुछ, मुझ नष्टचित्त का नष्ट हो गया है।



मम कौतूहलं त्वस्ति तेष्वर्थेषु पुनः प्रभो।

भवांश्च द्वारकां गन्ता नचिरादिव माधव॥७॥

हे प्रभो! उसको पुनः जानने के लिए मैं उत्सुक हूँ। हे माधव! और आप कुछ देर में ही द्वारका भी लौट जाऐंगे।



एवमुक्तस्ततः कृष्णः फल्गुनं प्रत्यभाषत।

परिष्वज्य महातेजा वचनं वदतां वरः॥८॥

एसा कहे जाने पर महान तेज वाले, बोलने में श्रेष्ठ, कृष्ण ने अर्जुन को गलो लगाकर कहा।



श्रावितस्त्वं मया गुह्यं ज्ञापितश्च सनातनम्।

धर्मं स्वरूपिणं पार्थ सर्वलोकांश्च शाश्वतान्॥९॥

हे पार्थ! मेरे द्वारा तुम्हें रहस्यात्मक बात सुनायी गई है, सनातन तत्त्व के बारे में बताया गया है, धर्म का स्वरूप और सभी शाश्वत लोकों के बारे में बताया गया है।



अबुद्ध्या नाग्रहीर्यस्त्वं तन्मे सुमहदप्रियम्।

न च साद्य पुनर्भूयः स्मृतिर्मे सम्भविष्यति॥१०॥

हे पाण्डव! जो तुमने बुद्धिहीन होकर नहीं सुना, वह मेरे लिए अत्यंत अप्रिय है। और आज दुबारा उसे याद करना मेरे लिए सम्भव नहीं है।



नूनमश्रद्धानोऽसि दुर्मेधा ह्यासि पाण्डव।

न च शक्यं पुनर्वक्तुमशेषेण धनंजय॥११॥

निश्चय ही तुम श्रद्धाहीन हो और मूढ हो। हे धनंजय! मैं दुबारा उसे पूरी तरह से नहीं बता पाऊँगा।



स हि धर्मः सुपर्याप्तो ब्रह्मणः पदवेदने।

न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः॥१२॥

वह ज्ञान ब्रह्म को जानने के लिए पर्याप्त था। उसे पूरी तरह दुबारा बोलना मेरे लिए सम्भव नहीं है।



परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया।

इतिहासं तु वक्ष्यामि तस्मिन्नर्थे पुरातनम्॥१३॥

मेरे द्वारा परब्रह्म के विषय मे बताया गया था और अपनी यौगिक शक्ति दिखाई गई थी। उस विषय में मैं तुम्हें एक पुरातन इतिहास बताऊँगा।



यथा तां बुद्धिमास्थाय गतिमग्र्यां गमिष्यसि।

शृणु धर्मभृतां श्रेष्ठ गदतः सर्वमेव मे॥१४॥

जिससे उसे बुद्धि से जानकर तुम श्रेष्ठ लक्ष्य प्राप्त कर पाओगे। हे धर्म धारण करने वालों में श्रेष्ठ! सब कुछ बताते हुए मुझे सुनो।



आगच्छद्ब्राह्मणः कश्चित्स्वर्गलोकादरिंदम।

ब्रह्मलोकाच्च दुर्धर्षः सोऽस्माभिः पूजितोऽभवत्॥१५॥

हे शत्रुओं के दमन करने वाले! एक समय कोई दुर्धर्ष ब्राह्मण स्वर्गलोक और ब्रह्मलोक से आया था और हमारे द्वारा पूजित किया गया था।



अस्माभिः परिपृष्टश्च यदाह भरतर्षभ।

दिव्येन विधिना पार्थ तच्छृणुष्वाविचारयन्॥१६॥

हे भरतर्षभ! हमारे द्वारा दिव्य विधिपूर्वक पूछे जाने पर उसने जो कहा, पार्थ! उसे निःशंक भाव से सुनो!



ब्राह्मण उवाच

मोक्षधर्मं समाश्रित्य कृष्ण यन्मामपृच्छथाः।

भूतानामनुकम्पार्थं यन्मोहच्छेदनं प्रभो॥१७॥

तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि यथावन्मधुसूदन।

शृणुष्वावहितो भूत्वा गदतो मम माधव॥१८॥

ब्राह्मण बोले

हे कृष्ण! हे प्रभो! प्राणियों पर अनुकम्पा करने के लिए, मोह का छेदन करने वाले मोक्षधर्म के विषय में जो आप मुझे पूछ रहे हो, हे मधुसूदन! वह मैं यथावत् आपको बताऊँगा। हे माधव! एकाग्र होकर मुझे बताते हुए सुनें।



कश्चिद्विप्रस्तपोयुक्तः काश्यपो धर्मवित्तमः।

आससाद द्विजं कंचिद्धर्माणामागतागमम्॥१९॥

कोई काश्यप नाम का तपस्वी विप्र, धर्म का श्रेष्ठ जानकार, किसी धर्म को अच्छी तरह जानने वाले विप्र के पास पहुँचा।



गतागते सुबहुशो ज्ञानविज्ञानपारगम्।

लोकतत्त्वार्थकुशलं ज्ञातारं सुखदुःखयोः॥२०॥

(वह विप्र) संसार चक्र के ज्ञान-विज्ञान को अच्छी तरह जानता था, सभी लोकों के बारे में तथा सुख-दुःख के बारे में भी अच्छी तरह जानता था।



जातीमरणतत्त्वज्ञं कोविदं पुण्यपापयोः।

द्रष्टारमुच्चनीचानां कर्मभिर्देहिनां गतिम्॥२१॥

(वह विप्र) जन्म-मरण के तत्त्व को जानता था तथा पुण्य-पाप के विषय में भी ज्ञान रखता था। वह कर्मानुसार प्राप्त होने वाली प्राणियों की उच्च-नीच गति को भी जानता था।



चरन्तं मुक्तवत्सिद्धं प्रशान्तं संयतेन्द्रियम्।

दीप्यमानं श्रिया ब्राह्म्या क्रममाणं च सर्वशः॥२२॥

(वह विप्र) एक मुक्त के समान आचरण करने वाला था, सिद्ध था, प्रशान्त चित्त वाला था, संयत इंद्रियों वाला था, ब्राह्मिक तेज से दैदीप्यमान वह सभी जगह विहार कर रहा था।



अन्तर्धानगतिज्ञं च श्रुत्वा तत्त्वेन काश्यपः।

तथैवान्तर्हितैः सिद्धैर्यान्तं चक्रधरैः सह॥२३॥

(वह विप्र) अन्तर्धान होना जानता था तथा अन्तर्धान हुए सिद्धों के साथ तथा चक्रधरों के साथ जा रहा था।



संभाषमाणमेकान्ते समासीनं च तैः सह।

यदृच्छया च गच्छन्तमसक्तं पवनं यथा॥२४॥

(वह विप्र) एकान्त में उनके साथ बैठ कर वार्ता करता हुआ, वायु की तरह अनासक्त अपनी इच्छानुसार जहाँ चाहे वहाँ जा रहा था।



तं समासाद्य मेधावी स तदा द्विजसत्तमः।

चरणौ धर्मकामो वै तपस्वी सुसमाहितः।

प्रतिपेदे यथान्यायं भक्त्या परमया युतः॥२५॥

वह मेधावी, श्रेष्ठ, तपस्वी ब्राह्मण उस के पास जाकर, धर्म का ज्ञान पाने की इच्छा से सुसमाहित होकर विधिपूर्वक और परम भक्तिपूर्वक उसके चरणों पर गिर पड़ा।



विस्मितश्चाद्भुतं दृष्ट्वा काश्यपस्तं द्विजोत्तमम्।

परिचारेण महता गुरुं वैद्यमतोषयत्॥२६॥

और उस अद्भुत और श्रेष्ठ विप्र को देखकर काश्यप विस्मित हुए और अपनी महान सेवा से उस विज्ञ गुरु को प्रसन्न किया।



प्रीतात्मा चोपपन्नश्च श्रुतचारित्रसंयुतः।

भावेन तोषयच्चैनं गुरुवृत्त्या परंतपः॥२७॥

परन्तप (काश्यप) ने प्रसन्न भाव से उसके पास जाकर, श्रुति सम्मत व्यवहार से सम्पन्न होकर, गुरू के लिए उपयुक्त व्यवहार से उन्हें प्रसन्न किया।



तस्मै तुष्टः स शिष्याय प्रसन्नोऽथाब्रवीद्गुरुः।

सिद्धिं परामभिप्रेक्ष्य शृणु तन्मे जनार्दन॥२८॥

गुरू ने शिष्य से प्रसन्न होकर परम सिद्धि से सम्बन्धित वचन कहे। हे जनार्दन! वह मुझसे सुनो।



सिद्ध उवाच

विविधैः कर्मभिस्तात पुण्ययोगैश्च केवलैः।

गच्छन्तीह गतिं मर्त्या देवलोकेऽपि च स्थितिम्॥२९॥

सिद्ध बोले

हे तात! विविध प्रकार के कर्मों से और केवल पुण्य कर्मों के योग से मर्त्य प्राणि या तो यहाँ (पृथिवी पर) या फिर देवलोक में जाते हैं।



न क्वचित्सुखमत्यन्तं न क्वचिच्छाश्वती स्थितिः।

स्थानाच्च महतो भ्रंशो दुःखलब्धात्पुनः पुनः॥३०॥

कहीं पर भी आत्यान्तिक सुख नहीं है। और न ही कहीं पर शाश्वत स्थिति है। बार बार अत्यन्त कठिनाई से प्राप्त स्थान से च्युति होती है।



अशुभा गतयः प्राप्ताः कष्टा मे पापसेवनात्।

काममन्युपरीतेन तृष्णया मोहितेन च॥३१॥

मेरे द्वारा काम और क्रोध से अभिभूत होकर, तथा तृष्णा से मोहित होकर, पाप का सेवन करने के कारण अशुभ योनियाँ भोगीं गईं हैं



पुनः पुनश्च मरणं जन्म चैव पुनः पुनः।

आहारा विविधा भुक्ताः पीता नानाविधाः स्तनाः॥३२॥

(मेरे द्वारा) बार बार जन्म (भोगा गया है) और बार बार मृत्यु (भोगी गई है)। विविध प्रकार के आहार भोगे गये हैं तथा नाना प्रकार के स्तनों से दुग्धपान किया गया है।



मातरो विविधा दृष्टाः पितरश्च पृथग्विधाः।

सुखानि च विचित्राणि दुःखानि च मयानघ॥३३॥

हे अनघ! मेरे द्वारा विविध प्रकार की माताऐं, विमिन्न पिता, विचित्र सुख और दुःख देखे गए हैं।



प्रियैर्विवासो बहुशः संवासश्चाप्रियैः सह।

धननाशश्च संप्राप्तो लब्ध्वा दुःखेन तद्धनम्॥३४॥

बहुत बार प्रियजनों से दूर रहना और अप्रियों के साथ रहना (भोगा गया है)। कठिनाई से प्राप्त धन को पाकर उसका नाश होते हुए भी देखा है।



अवमानाः सुकष्टाश्च परतः स्वजनात्तथा।

शारीरा मानसाश्चापि वेदना भृशदारुणाः॥३५॥

अपमान तथा अनेक कष्ट, दूसरों से प्राप्त तथा अपनों से प्राप्त (किये गए हैं)। अत्यंत दारुण शारीरिक तथा मानसिक कष्ट भी भोगे गए हैं।



प्राप्ता विमाननाश्चोग्रा वधबन्धाश्च दारुणाः।

पतनं निरये चैव यातनाश्च यमक्षये॥३६॥

(मेरे द्वारा) उग्र अपमान भोगे गए हैं, (युद्ध में) दारुण वध और बन्धन भोगे गए हैं। नरक में गिरकर यमालय में यातनाऐं भोगीं गईं हैं।



जरा रोगाश्च सततं वासनानि च भूरिशः।

लोकेऽस्मिन्ननुभूतानि द्वंद्वजानि भृशं मया॥३७॥

इस लोक में सतत वृद्धावस्था, रोग तथा द्वन्द्वों से जनित अनेकों अनेक वासनाऐं मेरे द्वारा अनुभूत की गईं हैं।



ततः कदाचिन्निर्वेदान्निराकाराश्रितेन च।

लोकतन्त्रं परित्यक्तं दुःखार्तेन भृशं मया॥३८॥

लोकेऽस्मिन्ननुभूयाहमिमं मार्गमनुष्ठितः।

ततः सिद्धिरियं प्राप्ता प्रसादादात्मनो मया॥३९॥

तब एक समय दुःख से अत्यन्त पीड़ित मेरे द्वारा निराकार ब्रह्म का आश्रय लेकर निर्वेद-पूर्वक यह लोक-व्यवहार त्याग दिया गया। इस लोक में अनुभव करके मैंने इस मार्ग का अनुष्टान किया, तब आत्मा के प्रसाद के द्वारा मेरे द्वारा यह सिद्धि प्राप्त की गई।



नाहं पुनरिहागन्ता लोकानालोकयाम्यहम्।

आसिद्धेराप्रजासर्गादात्मनो मे गतीः शुभाः॥४०॥

मैं यहाँ पुनः नहीं आऊँगा। मैं लोकों को देख रहा हूँ। प्रजा की उत्पत्ति से लेकर सिद्धि प्राप्त करने तक के अपने शुभ मार्गों को देख रहा है।



उपलब्धा द्विजश्रेष्ठ तथेयं सिद्धिरुत्तमा।

इतः परं गमिष्यामि ततः परतरं पुनः॥४१॥

ब्रह्मणः पदमव्यग्रं मा तेऽभूदत्र संशयः।

नाहं पुनरिहागन्ता मर्त्यलोकं परंतप॥४२॥

हे द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार मेरे द्वारा यह उत्तम सिद्धि प्राप्त की गई है। यहाँ से मैं उत्तम लोक में जाऊँगा, उसके बाद उससे उत्तम और उसके बाद ब्रह्म के अव्यग्र पद को प्राप्त करूँगा। इसमें तुम्हें संशय नहीं होना चाहिए। हे परंतप! मैं यहाँ मर्त्यलोक में पुनः नहीं आऊँगा।



प्रीतोऽस्मि ते महाप्राज्ञ ब्रूहि किं करवाणि ते।

यदीप्सुरुपपन्नस्त्वं तस्य कालोऽयमागतः॥४३॥

हे महाप्राज्ञ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। बताओ तुम्हारे लिए क्या करूँ।



अभिजाने च तदहं यदर्थं मां त्वमागतः।

अचिरात्तु गमिष्यामि येनाहं त्वामचूचुदम्॥४४॥

जिस वस्तु की इच्छा करते हुए तुम यहाँ आए हो, उसका समय आ गया है। मैं वह कारण जानता हूँ जिसके लिए तुम यहाँ आए हो। शीघ्र ही मैं यहाँ से चला जाऊँगा अतः मैंने तुम्हें जल्दी करने को कहा है।



भृशं प्रीतोऽस्मि भवतश्चारित्रेण विचक्षण।

परिपृच्छ यावद्भवते भाषेयं यत्तवेप्सितम्॥४५॥

हे विचक्षण! मैं तुम्हारे आचारण से अत्यंत प्रसन्न हूँ। पूछो, ताकि मैं तुम्हें वह बता सकूँ जो तुम्हारी इच्छा है।



बहु मन्ये च ते बुद्धिं भृशं संपूजयामि च।

येनाहं भवता बुद्धो मेधावी ह्यसि काश्यप॥४६॥

हे काश्यप! मैं तुम्हारी बुद्धि का सम्मान करता हूँ क्योंकि उसके द्वारा तुमने मुझे (अन्तर्धान होते हुए भी) पहचान लिया। तुम निश्चय ही मेधावी हो।



॥इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीता पर्वणि प्रथमोऽध्यायः॥

अनुगीता - अध्याय २


वासुदेव उवाच

ततस्तस्योपसंगृह्य पादौ प्रश्नान्सुदुर्वचान्।

पप्रच्छ तांश्च सर्वान्स प्राह धर्मभृतां वरः॥१॥

वासुदेव बोले

तब उसके चरणों को पकड़कर काश्यप ने अत्यंत कठिन प्रश्न पूछे। और उस धार्मिकों में श्रेष्ठ ने उन सभी का उत्तर दिया।



काश्यप उवाच

कथं शरीरं च्यवते कथं चैवोपपद्यते।

कथं कष्टाच्च संसारात्संसरन्परिमुच्यते॥२॥

काश्यप बोले

शरीर कैसे नष्ट होता है तथा कैसे उत्पन्न होता है? और इस संसार में भ्रमण करते हुए किस प्रकार कष्टों से मुक्त होता है?



आत्मा च प्रकृतिं मुक्त्वा तच्छरीरं विमुञ्चति।

शरीरतश्च निर्मुक्तः कथमन्यत्प्रपद्यते॥३॥

आत्मा किस प्रकार प्रकृति को त्यागकर उस शरीर से मुक्त होती है? और शरीर से निकलकर कैसे दूसरे शरीर को प्राप्त करती है?



कथं शुभाशुभे चायं कर्मणी स्वकृते नरः।

उपभुङ्क्ते क्व वा कर्म विदेहस्योपतिष्ठति॥४॥

किस प्रकार मनुष्य अपने द्वारा किये शुभ और अशुभ कर्मों को भोगता है? और शरीर छोड़ने के पश्चात् मनुष्य के कर्म कहाँ ठहरते हैं?



ब्राह्मण उवाच

एवं संचोदितः सिद्धः प्रश्नांस्तान्प्रत्यभाषत।

आनुपूर्व्येण वार्ष्णेय तन्मे निगदतः शृणु॥५॥

हे वार्ष्णेय! इस प्रकार पूछने पर उस सिद्ध ने यथाक्रम उन प्रश्नों का उत्तर दिया। वह बताते हुए मुझे सुनो।



सिद्ध उवाच

आयुःकीर्तिकराणीह यानि कर्माणि सेवते।

शरीरग्रहणे यस्मिंस्तेषु क्षीणेषु सर्वशः॥६॥

आयुःक्षयपरीतात्मा विपरीतानि सेवते।

बुद्धिर्व्यावर्तते चास्य विनाशे प्रत्युपस्थिते॥७॥

सिद्ध बोले

शरीर को ग्रहण करने पर मनुष्य आयु और यश प्रदान कराने वाले जिन कर्मों को भोगता है, उन कर्मों के सर्वथा क्षीण हो जाने पर, आयु-क्षय के समीप आने पर वह विपरीत प्रकार के कर्मों को भोगता है। विनाश के उपस्थित होने पर उसकी बुद्धि भी विपरीत दिशा में मुड़ जाती है।



सत्त्वं बलं च कालं चाप्यविदित्वात्मनस्तथा।

अतिवेलमुपाश्नाति तैर्विरुद्धान्यनात्मवान्॥८॥

तथा प्रमादपूर्वक अपने सत्त्व, बल तथा काल को बिना जाने उनसे विरुद्ध आत्यधिक भोगों को भोगता है।



यदायमतिकष्टानि सर्वाण्युपनिषेवते।

अत्यर्थमपि वा भुङ्क्ते न वा भुङ्क्ते कदाचन॥९॥

जब मनुष्य सभी अतिकष्टदायक कर्म करता है या फिर अत्यधिक भोजन करता है या फिर कभी भी भोजन नहीं करता है;



दुष्टान्नामिषपानं च यदन्योन्यविरोधि च।

गुरु चाप्यमितं भुङ्क्ते नातिजीर्णेऽपि वा पुनः॥१०॥

जब यह दुष्ट अन्न या आमिष भोजन या मदिरा का सेवन करता है या ऐसे पदार्थों का सेवन करता है जो एक-दूसरे के विरोधि हैं या अत्याधिक भारी भोजन करता है या पिछले भोजन को बिना पचाये भोजन करता है;



व्यायाममतिमात्रं वा व्यवायं चोपसेवते।

सततं कर्मलोभाद्वा प्राप्तं वेगविधारणम्॥११॥

या जब अत्यधिक व्यायाम करता है या अत्यधिक काम का सेवन करता है या शरीर के मलत्याग की क्रियाओं को रोकता है;



रसातियुक्तमन्नं वा दिवास्वप्नं निषेवते।

अपक्वानागते काले स्वयं दोषान्प्रकोपयन्॥१२॥

या अत्यधिक रस से युक्त भोजन करता है या दिन में स्वप्न देखता है या बिना पके हुए भोजन का सेवन करता है, वह समय आने पर अपने शरीर के दोषों को (वात, पित्त और कफ) प्रकुपति कर देता है



स्वदोषकोपनाद्रोगं लभते मरणान्तिकम्।

अथ चोद्बन्धनादीनि परीतानि व्यवस्यति॥१३॥

आपने शरीर के दोषों के कोप से मृत्यु प्राप्त कराने वाले रोगों से ग्रसित हो जाता है अथवा अपने को फाँसी लगाने जैसे कार्यों में व्यवसित हो जाता है।



तस्य तैः कारणैर्जन्तोः शरीराच्च्यवते यथा।

जीवितं प्रोच्यमानं तद्यथावदुपधारय॥१४॥

इन कारणों से जन्तु के शरीर से जिस प्रकार जीवन का अलगाव होता है, उसे मेरे द्वारा बताते हुए यथावत समझो।



ऊष्मा प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः।

शरीरमनुपर्येति सर्वान्प्राणान्रुणद्धि वै॥१५॥

तीव्र वायु के उकसाने पर कुपित ऊष्मा पूरे शरीर को व्याप्त करती है और सभी प्राणों को रोक देती है।



अत्यर्थं बलवानूष्मा शरीरे परिकोपितः।

भिनत्ति जीवस्थानानि तानि मर्माणि विद्धि च॥१६॥

शरीर में अत्याधिक कुपित ऊष्मा जीवस्थानों को भेद देती है। उन स्थानों को मर्म स्थान जानो।



ततः सवेदनः सद्यो जीवः प्रच्यवते क्षरात्।

शरीरं त्यजते जन्तुश्छिद्यमानेषु मर्मसु॥१७॥

तब कष्टपूर्वक जीवात्मा इस क्षर शरीर से अलग हो जाता है। मर्म स्थानों के छेदन होने पर जन्तु अपना शरीर त्याग देता है।