गुरुवार, 23 सितंबर 2010

कौआ==पितृ पक्ष

कौआ सर्वहारी पक्षी है जो कहीं भी रह सकता है। इसकी प्रमुख जरूरत आवास और भोजन की है। बड़े पेड़ों पर रहने वाला यह पक्षी शहरों से इसलिए पलायन करने लगा है कि अब शहरों में इनके लिए सुरक्षित आवास नहीं रह गया है। शहर का तेजी से विस्तार और बड़े पेड़ों की कमी इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार है। पितृ पक्ष और कौए के संदर्भ में कुछ ज्योतिषाचार्य क्या मानते है।                       पंडित विद्याधर बड़गैंया के अनुसार कौआ एक चाण्डाल पक्षी है। इसका पितरों से कोई संबंध नहीं है। फिर भी लोक रीति के अनुसार लोग पितरों की शांति के लिए कौए को पितृ पक्ष में भोजन कराते हैं। दरअसल सिर्फ कौए को ही नहीं सभी जीवों को भोजन कराने का विधान है।

पितृ पक्ष में भी कौआ, कुत्ता, गौ और अन्य जीव-जंतुओं को भोजन कराया जाता है। यह इसलिए कि सर्वे भवंतु सुखीनः अर्थात् सब सुखी रहें।

ज्योतिषाचार्य पं. वासुदेव शास्त्री कहते हैं कि रामचरित मानस में एक वर्णन है जिसमें इंद्र के पुत्र जयंत ने कौए का रूप धारण कर सीता जी की शक्ति की परीक्ष ली थी। उस समय भगवान राम ने उसकी एक आँख छीन ली थी और श्राप दिया था कि वर्ष भर में तुम्हें सिर्फ पंद्रह दिन ही स्वच्छ भोजन करने को मिलेगा, शेष दिन तुम गंदगी का भक्षण ही करोगे।

इसीलिए सिर्फ पितृ पक्ष में ही कौए को अच्छा खाने को मिलता है शेष दिन उसे गंदगी का ही भक्षण करना पड़ता है।

पं. हनुमान प्रसाद दुबे ज्योतिषाचार्य - पितृ पक्ष और कौए को लेकर कई किस्म की किवदंतियाँ है। शास्त्रों में इसके विशेष प्रमाण तो नहीं है लेकिन कौओं को पितर के रूप में माना जाता है। कौए का काला रंग होता है जो राहू-केतू का रूप माना जाता है।

राहू-केतू के कारण ही पितृदोष लगता है। इसलिए पितृ पक्ष में कौए को भोजन कराने से पितरों को शांति मिलती है और वे तृप्त होकर परलोक जाते हैं। 
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                                                                                     - पं. प्रेमकुमार शर्माव्यक्ति जैसे ही जीवन यात्रा के अंतिम बिन्दु में पहुँच पार्थिव शरीर को त्यागता है तो उसे मृत कहते हैं। देह धारण कर कभी अपने लिए तो कभी परिवार के लिए जो भी शुभ-अशुभ कर्म एकत्र किए उन्हीं के साथ इस अन्नत ब्रह्माण्ड में भ्रमण करता है। जहाँ का वातावरण धरती की तरह सुखद नहीं है। वहाँ कोई जलाशय, आश्रय भी नहीं, वर्षों का दिन-मास आदि होता है।

जहाँ अंधकार ही अंधकार, तीक्ष्ण गर्मी या सर्दी ही सर्दी है। इस प्रकार दुरूह मार्ग का वर्णन गरूड़ पुराण में ऋषियों ने किया है। ऐसी कोई ऋतु व हवा नहीं है जो उसे क्षणिक विश्राम व आराम दे सके। इस प्रकार के मार्ग न सिर्फ काल्पनिक है बल्कि वैज्ञानिक व खगोल की खोज से स्पष्ट भी हो चुका हैं। जिसे आम भाषा में स्वर्ग व नर्क के नाम से भी जाना जाता है। इसलिए जीवन यात्रा के अंतिम बिन्दु में पहुँचे हुए व्यक्ति जो कि प्रत्यक्ष रूप से नहीं किन्तु सूक्ष्म रूप से ब्रह्माण्ड के वातावरण में उपस्थित है। अनेकानेक वेद पुराणों के माध्यम से ऋषियों ने उसकी सुगति हेतु अंतिम संस्कार व श्राद्ध आदि कर्म बताएँ हैं।

प्राचीन ऋषियों ने सूक्ष्म ज्ञान से न केवल पृथ्वी पर बल्कि उसके अन्यत्र ग्रह, उपग्रहों में देव, दनुज, नाग, किन्नर आदि के उपस्थित होने की पुष्टि की है। अर्थात्‌ मृत्यु के पश्चात्‌ व्यक्ति की आत्मा अपने अस्तित्व को तलाशती रहती है। भगवान श्रीकृष्ण ने शरीर के परिवर्तन बाल, युवा, वृद्धावस्था को बताया है जिसे हम प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं, प्रभु ने आत्मा की अमरता को गीता के इस श्लोक से व्यक्त किया है-

वसांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्‌णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है। अनेक तथ्यों से सिद्ध हो जाता हैं कि व्यक्ति भौतिक शरीर को त्यागकर परलोक की यात्रा करता है। इसे सुगति देने हेतु प्रत्येक परिवार व व्यक्ति को संबंधित पूर्वजों का श्राद्ध, पिण्डदान, तर्पण आदि कर्म बड़ी पवित्रता व आस्था से करना चाहिए। क्योंकि पितर पवित्र क्रिया होने पर और देवता भक्त के भाव शुद्ध होने पूजा ग्रहण करते हैं। इसलिए पितृ कार्य में अधिक सावधानी, संयम, पवित्रता की जरूरत होती है।

आज भौतिक समाज संस्कृति व संस्कारों पर यह कह कर पर्दा डालने में लगा हुआ है कि यह तो अंधविश्वास है। आखिर जो मृत हो चुका भला उसे श्राद्ध व तर्पण आदि कर्मों से क्या लाभ होगा। जो दानादि उसके निमित्त किए जाते हैं भला उसे मिलेंगे भी या नहीं, इस तरह के संकीर्ण प्रश्नों के भार से दबा जा रहा हैं।

जो तत्परता से श्राद्ध आदि कर्म करते हैं, उनके पूर्वजों को गति से सुगति प्राप्त होती हैं। परिणमतः उनकी (श्राद्ध) कर्ता की प्रगति व उन्नति होती है। सुख, शांति, यश, वैभव, स्वस्थ जीवन, पुत्र, धन आदि उसे प्राप्त होते हैं। जो अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार, श्रद्धा, तर्पण आदि विधिपूर्वक न करके उसे सिर्फ व्यर्थ व औपचारिक समझते हैं उन्हें पैतृक प्रकोप से शारीरक कष्ट, आंतरिक पीड़ाएँ, बुरे स्वप्न, या स्वप्न में पूर्वजों का दर्शन, संतानहीनता, अकाल मृत्यु, धन, हानि, परिवार में कलह, दुर्घटना व अपमान प्राप्त होता है।

उस घर व परिवार का किसी प्रकार कल्याण नहीं होता ऐसा शास्त्रों में उल्लेख मिलता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को श्राद्ध अपने वैभव के अनुसार करना चाहिए। जो धनहीन है वह शाक मात्र से, जो शाक भी नहीं खरीद सकते वह घास मात्र गाय को खिलाकर और जो घास भी नहीं खरीदने की सामर्थ्य रखता है वह निर्जन स्थान में दोनों हाथ ऊपर उठाकर अपने पूर्वजों से क्षमा प्रार्थना करके उनका श्राद्ध संपन्न करें ऐसा पुराणों में उल्लेख है।

श्राद्ध को पितृकर्म, पितृ पूजा, पितृ यज्ञ, आदि के नाम से भी जाना जाता है। मृत्यु को प्राप्त हुए पूर्वजों को पितर के नाम से जाना जाता है, उनकी आत्म तृप्ति व खुद के कल्याण हेतु धर्म ग्रंथों में श्राद्ध का उल्लेख मिलता है। भला कौन ऐसा है जो अपने पितरों की सुगति रोक कर अपनी प्रगति कर सकता हैं, क्योंकि पितर उससे पहले हैं पहले उनकी सुगति होगी तभी हमारी और हमारे समाज व देश की प्रगति होगी।

माता-पिता जीवन का आधार हैं, जिनकी कृपा से सुरक्षित जीवन व ज्ञान प्राप्त होता है। प्रत्येक व्यक्ति पर पितृ, देव, ऋषि ऋणों का भार रहता है। जिसे व्यक्ति यथा समय पितृ यज्ञ, देव यज्ञ, ऋषि यज्ञ, करके चुका सकता है। श्राद्ध शब्द ही श्रद्धा का प्रतीक है।

श्राद्ध के जरूरी तथ्यः- तिथि, समय, शुद्धता, नेपाली कम्बल या कुश, काष्ठ का आसन, चाँदी, कुश, जल, गंगाजल, गौ दूध, जौ, काले तिल, शहद, तुलसीदल, सफेद व सुगन्धित फूल, सदाचारी व संयमित ब्राह्मण, श्रद्धा व विश्वास।

श्राद्ध में यह न करें:- क्रोध, प्रमाद, आलस्य, अपवित्रता, व्रत, मैथुन, तैलमर्दन, मांसभक्षण, मद्यपान, धू्म्रपान, दूसरे के अन्न का भक्षण, लोहे व मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग आदि न करें। किसी निमंत्रित व्यक्ति को कटुशब्द न कहें, बिल्व पत्र, अधिक सुगंध वाले लाल व काले फूलों का प्रयोग न करें। बासी अन्न, कीड़े, बाल पड़ा हुआ अन्न, कुत्ते द्वारा दृश्य, पहने हुए वस्त्र से ढका हुआ अन्न, बैंगन, मसूर, अरहर, गोल लौकी, कुम्हड़ा, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला जीरा व काला नमक, गाजर, आदि को न प्रयोग करें न परोसे।

श्राद्ध का समयः- श्राद्ध प्रतिवर्ष आश्विन कृष्ण से प्रारम्भ होकर अश्विन अमावस तक 15 दिनों तक चलते हैं। जो इस वर्ष 23 सितंबर 2010 से आरम्भ हो रहे हैं। जिसे पितृपक्ष, श्राद्ध पक्ष या महालयपक्ष कहा जाता है।

किसका श्राद्ध कौन करे? - पिता के श्राद्ध का अधिकार उसके पुत्र को ही है किन्तु जिस पिता के कई पुत्र हो उसका श्राद्ध उसके बड़े पुत्र, जिसके पुत्र न हो उसका श्राद्ध उसकी स्त्री, जिसके पत्नी नहीं हो, उसका श्राद्ध उसके सगे भाई, जिसके सगे भाई न हो, उसका श्राद्ध उसके दामाद या पुत्री के पुत्र (नाती) को और परिवार में कोई न होने पर उसने जिसे उत्तराधिकारी बनाया हो वह व्यक्ति उसका श्राद्ध कर सकता है।

श्राद्ध की तिथिः- पितृगणों का श्राद्ध उनकी मृत्यु तिथि के अनुसार किया जाता है। किन्तु जिनकी मृत्यु दुर्घटना, अस्त्र, शस्त्र, जीव, पशु, विश, आत्महत्या, जलकर, डूबकर, विद्युत, गिरने आदि कारणों से हुई हो उनकी ज्ञात तिथि को छोड़कर चतुर्दशी के दिन श्राद्ध किया जाता है। जिनकी तिथि ज्ञात नहीं होती उनका श्राद्ध आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस को जिसे सर्वपितृ श्राद्ध कहा जाता है इसी दिन स्नानादि कर पितृ विसर्जन कर दिया जाता है।

जो अपने पूर्वजों का श्राद्ध नहीं करते, उन्हें पितरों के शाप से रोग, शोक, धन, पुत्र हानि, अकाल मृत्यु, गर्भपात, अत्याधिक प्रसव पीड़ा, मृत्युतुल्य कष्ट, गरीबी, झगड़े, वैवाहिक जीवन में असंतोष, अनेक प्रकार की व्याधियाँ, बुरे स्वप्न आते हैं, जिसे पितृदोष के रूप में जाना जाता है। इस संदर्भ आदित्यपुराण में उल्लेख है-

न सन्ति पितरश्चे्‌ति कृत्वा मनसि यो नरः।
श्राद्धं न कुरूते तत्र तस्य रक्तं पिबन्ति ते ॥

श्राद्ध के संदर्भ ब्रह्म,गरूड़, मत्स्यपुराण तथा विभिन्न स्मृतियों में उल्लेख मिलता है। पाराशर, जाबालि आदि ऋषियों तथा पुराणों में श्राद्ध करने पर सर्वत्र जोर दिया गया है। ब्रह्मपुराण के अनुसार हव्य से देवताओं का और कव्य से पितृगणों का तथा अन्न द्वारा बंधुजनों का स्वागत करना चाहिए।

श्राद्ध कब और कौन करे :


श्रद्धावंत होकर अधोगति से मुक्ति प्राप्ति हेतु किया गया धार्मिक कृत्य- 'श्राद्ध' कहलाता है। भारतीय ऋषियों ने दिव्यानुसंधान करके उस अति अविशिष्ट काल खंड को भी खोज निकाला है जो इस कर्म हेतु विशिष्ट फलदायक है। इसे श्राद्ध पर्व कहते हैं।

यह पक्ष आश्विन कृष्ण पक्ष अर्थात्‌ प्रतिपदा से अमावस्या तक का 15 दिवसीय पक्ष है। इस पक्ष में पूर्णिमा को जोड़ लेने से यह 16 दिवसीय महालय श्राद्ध पक्ष कहलाता है।


इस श्राद्ध पक्ष में हमारे परिवार के दिवंगत व्यक्तियों की अधोगति से मुक्ति प्राप्ति हेतु धार्मिक कृत्य किए जाते हैं। जो भी व्यक्ति जिस तिथि को भी किसी भी माह में मृत्यु को प्राप्त हुआ, इस पक्ष में उसी तिथि को मृतक की आत्मा की शांति हेतु धार्मिक कर्म किए जाते हैं।

इस प्रकरण में भारतीय चाँद्र वर्ष अर्थात्‌ वर्तमान प्रचलित संवत्सर पद्धति की तिथि ली जाती है। आंग्ल सौर वर्ष आधारित दिनांक (घची) से इसकी गणना नहीं की जाती है।

श्राद्ध कब और कौन करे :
- माता-पिता की मरणतिथि के मध्याह्न काल में पुत्र को श्राद्ध करना चाहिए।

- जिस स्त्री के कोई पुत्र न हो, वह स्वयं ही अपने पति का श्राद्ध कर सकती है। 

श्राद्ध पक्ष में घर के कर्म


महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए। यह जिज्ञासा सहजतावश अनेक व्यक्तियों में रहती है। यदि हम किसी भी तीर्थ स्थान, किसी भी पवित्र नदी, किसी भी पवित्र संगम पर नहीं जा पा रहे हैं तो निम्नांकित सरल एवं संक्षिप्त कर्म घर पर ही अवश्य कर लें :-

- प्रतिदिन खीर (अर्थात्‌ दूध में पकाए हुए चावल में शक्कर एवं सुगंधित द्रव्य जैसे इलायची, केसर मिलाकर तैयार की गई सामग्री को खीर कहते हैं) बनाकर तैयार कर लें।

- गाय के गोबर के कंडे को जलाकर पूर्ण प्रज्वलित कर लें।

- उक्त प्रज्वलित कंडे को शुद्ध स्थान में किसी बर्तन में रखकर, खीर से तीन आहुति दे दें।

- इसके नजदीक (पास में ही) जल का भरा हुआ एक गिलास रख दें अथवा लोटा रख दें।

- इस द्रव्य को अगले दिन किसी वृक्ष की जड़ में डाल दें।

- भोजन में से सर्वप्रथम गाय, काले कुत्ते और कौए के लिए ग्रास अलग से निकालकर उन्हें खिला दें। इसके पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराएँ फिर स्वयं भोजन ग्रहण करें। पश्चात ब्राह्मणों को यथायोग्य दक्षिणा दें।
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shraadh



पुराने गानों में कौओं के गानों की प्रासंगिकता कभी थी, लेकिन अब ये अप्रासंगिक हो चुके हैं। शायद इसकी वजह यह है झूठ बोलने वालों की तादाद जितनी गति से बढ़ी है उसकी दुगनी गति से कौओं की संख्या घटी है। इससे झूठ बोलने वालों की तो बन पड़ी है क्योंकि जब कौए ही नहीं तो काटेगा कौन? इनका डर तो खत्म हो गया पर समस्या उन लोगों के लिए बढ़ गई जो इन काले कौओं के माध्यम से अपने पुरखों को भोजन भेजा करते हैं।

कौओं का इस समय जिक्र करने की जरूरत सिर्फ इस लिए आन पड़ी क्योंकि पितृ पक्ष दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार पखवाड़े में कौओं को कागौर दिया जाता है। जिससे पुरखों की आत्मा को तृप्ति मिलती है। कथानक है कि पितृ पक्ष में पुरखों की आत्माएँ परलोक से इहलोक में घूमने निकलती हैं और अपनी क्षुधा वे कौओं के माध्यम से स्वजनों द्वारा दिए गए कागौर को ग्रहण कर शांत करतीं हैं।

कौआ- भाईचारे का प्रतीक : सामूहिक भाईचारे का कौआ प्रमुख परिचायक पक्षी होता है। इसका उदाहरण जाने-अनजाने कई बार दिखाई देता है। अगर किसी एक कौए को भी कहीं कोई भोजन सामग्री दिखाई दे जाती है तो हव अकेला कभी खाने की कोशिश नहीं करता वरन्‌ काँव-काँव करके अपने जातिगत समूह को भी बुला लेता है। इसके बाद बगैर किसी आपसी लड़ाई के सभी कौए मिल-बाँट कर भोजन खाते हैं। आपसी भाईचारे का इससे बड़ा प्रतीक और क्या हो सकता है।

सफाई का आसमानी दरोगा : गंदगी को सफचट कर देने में कौए की अहम भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। कौआ एक ऐसा पक्षी होता है, जिसे जो भी मिले खा लेता है। यही वजह है कि इसे सफाई का आसमानी दरोगा भी कहा जाता है।


पर्यावरणविद् भी मानते हैं कि कौओं की एक निश्चित आबादी का बना रहना पर्यावरण की दृष्टि से लाभकारी है। इस तरह कहा जा सकता है कि सिर्फ पितरों की तृप्ति का माध्यम ही नहीं वरन् पर्यावरण की दृष्टि से भी इनकी संख्या का घटना चिंताजनक है। प्रकृति में सभी प्राणियों का अपना एक अहम् स्थान है।

पक्षियों की संख्या में कमी : प्राणी जगत के विशेषज्ञों का इस संबंध में कहना है कि हर प्राणी उसी जगह को अपना आवास बनाना पसंद करता है, जहाँ भोजन की सहज उपलब्धता हो। ऐसे में जब शहर काँक्रीट हो चुके हैं और वृक्षों की न्यूनता हो पक्षियों की संख्या में कमी होना स्वाभाविक है।

अब न तो आँगन में दाने चुगने को मिलते हैं और ना ही नजर आती है, फुदकती हुई गौरेया। कहीं न कहीं इन सबके पीछे मानव निर्मित हालातों के असर से इंकार नहीं किया जा सकता। 
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श्राद्ध




भाद्रपद की पूर्णिमा एवं अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक का समय पितृ पक्ष का माना जाता है। इस वर्ष श्राद्ध पर्व 7 अक्टूबर को समाप्त हो जाएँगे। इस दौरान मृत पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता है। जिस तिथि को किसी पूर्वज का देहांत होता है उसी तिथि को उनका श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध के दौरान पंडितों को खीर-पूरी खिलाने का महत्व होता है। माना जाता है कि इससे स्वर्गीय पूर्वजों की आत्मा तृप्त होती है।

पुरुष के श्राद्ध में ब्राह्मण को तथा स्त्री के श्राद्ध में ब्राह्मण महिला को भोजन कराया जाता है। लोग अपनी श्रद्धा अनुसार खीर-पूरी तथा सब्जियाँ बनाकर उन्हें भोजन कराते हैं तथा बाद में वस्त्र व दक्षिणा देकर व पान खिलाकर विदा करते हैं।

सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर अपने पूर्वज का चित्र रखकर पंडित नियमपूर्वक पूजा व संकल्प कराते हैं। इस दिन बिना प्याज व लहसुन का भोजन तैयार किया जाता है। बाद में पंडित व पंडिताइन के श्रद्धापूर्वक पैर छूकर उन्हें भोजन कराते हैं।
भोजन में खीर-पूरी व पनीर, सीताफल, अदरक व मूली का लच्छा तैयार किया जाता है। उड़द की दाल के बड़े बनाकर दही में डाले जाते हैं। पंडित सर्वप्रथम गाय का नैवेद्य निकलवाते हैं। इसके अलावा कौओं व चिड़िया, कुत्ते के लिए भी ग्रास निकालते हैं।

पितृ अमावस्या को आखिरी श्राद्ध करके पितृ विसर्जन किया जाता है तथा पितरों को विदा किया जाता है।

कई जगहों पर अमावस्या के दिन पंडित बहुत कम मिलते हैं क्योंकि एक धारणा यह है कि श्राद्ध का भोजन या तो कुल पंडित या किसी खास ब्राह्मण को कराया जाता है।

कई जगह व्यस्त होने के चलते भी पंडितों की कमी रहती है। मान्यता है कि ब्राह्मणों को खीर-पूरी खिलाने से पितृ तृप्त होते हैं। यही वजह है कि इस दिन खीर-पूरी ही बनाई जाती है। 
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शनिवार, 4 सितंबर 2010

कलियुग का आगमन

धर्मराज युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव पाँचों पाण्डव महापराक्रमी परीक्षित को राज्य देकर महाप्रयाण हेतु उत्तराखंड की ओर चले गये और वहाँ जाकर पुण्यलोक को प्राप्त हुये। राजा परीक्षित धर्म के अनुसार तथा ब्राह्नणों की आज्ञानुसार शासन करने लगे। उत्तर नरेश की पुत्री इरावती के साथ उन्होंने अपना विवाह किया और उस उत्तम पत्नी से उनके चार पुत्र उत्पन्न हुये। आचार्य कृप को गुरु बना कर उन्होंने जाह्नवी के तट पर तीन अश्वमेघ यज्ञ किये। उन यज्ञों में अनन्त धन राशि ब्रह्मणों को दान में दी और दिग्विजय हेतु निकल गये।
उन्हीं दिनों धर्म ने बैल का रूप बना कर गौरूपिणी पृथ्वी से सरस्वती तट पर भेंट किया। गौरूपिणी पृथ्वी की नेत्रों से अश्रु बह रहे थे और वह श्रीहीन सी प्रतीत हो रही थी। धर्म ने पृथ्वी से पूछा – “हे देवि! तुम्हारा मुख मलिन क्यों हो रहा है? किस बात की तुम्हें चिन्ता है? कहीं तुम मेरी चिन्ता तो नहीं कर रही हो कि अब मेरा केवल एक पैर ही रह गया है या फिर तुम्हें इस बात की चिन्ता है कि अब तुम पर शूद्र राज्य करेंगे?”
पृथ्वी बोली – “हे धर्म! तुम सर्वज्ञ होकर भी मुझ से मेरे दुःख का कारण पूछते हो! सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, सन्तोष, त्याग, शम, दम, तप, सरलता, क्षमता, शास्त्र विचार, उपरति, तितिक्षा, ज्ञान, वैराग्य, शौर्य, तेज, ऐश्वर्य, बल, स्मृति, कान्ति, कौशल, स्वतन्त्रता, निर्भीकता, कोमलता, धैर्य, साहस, शील, विनय, सौभाग्य, उत्साह, गम्भीरता, कीर्ति, आस्तिकता, स्थिरता, गौरव, अहंकारहीनता आदि गुणों से युक्त भगवान श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन के कारण घोर कलियुग मेरे ऊपर आ गया है। मुझे तुम्हारे साथ ही साथ देव, पितृगण, ऋषि, साधु, सन्यासी आदि सभी के लिये महान शोक है। भगवान श्रीकृष्ण के जिन चरणों की सेवा लक्ष्मी जी करती हैं उनमें कमल, वज्र, अंकुश, ध्वजा आदि के चिह्न विराजमान हैं और वे ही चरण मुझ पर पड़ते थे जिससे मैं सौभाग्यवती थी। अब मेरा सौभाग्य समाप्त हो गया है।”
जब धर्म और पृथ्वी ये बातें कर ही रहे थे कि मुकुटधारी शूद्र के रूप में कलियुग वहाँ आया और उन दोनों को मारने लगा।
राजा परीक्षित दिग्विजय करते हुये वहीं पर से गुजर रहे थे। उन्होंने मुकुटधारी शूद्र को हाथ में डण्डा लिये एक गाय और एक बैल को बुरी तरह पीटते देखा। वह बैल अत्यन्त सुन्दर था, उसका श्वेत रंग था और केवल एक पैर था। गाय भी कामधेनु के समान सुन्दर थी। दोनों ही भयभीत हो कर काँप रहे थे। महाराज परीक्षित अपने धनुषवाण को चढ़ाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी में ललकारे – “रे दुष्ट! पापी! नराधम! तू कौन है? इन निरीह गाय तथा बैल क्यों सता रहा है? तू महान अपराधी है। तेरे अपराध का उचित दण्ड तेरा वध ही है।” उनके इन वचनों को सुन कर कलियुग भय से काँपने लगा।
महाराज ने बैल से पूछा कि हे बैल तुम्हारे तीन पैर कैस टूटे गये हैं। तुम बैल हो या कोई देवता हो। हे धेनुपुत्र! तुम निर्भीकतापूर्वक अपना अपना वृतान्त मुझे बताओ। हे गौमाता! अब तुम भयमुक्त हो जाओ। मैं दुष्टों को दण्ड देता हूँ। किस दुष्ट ने मेरे राज्य में घोर पाप कर के पाण्डवों की पवित्र कीर्ति में यह कलंक लगाया है? चाहे वह पापी साक्षात् देवता ही क्यों न हो मैं उसके भी हाथ काट दूँगा। तब धर्म बोला – “हे महाराज! आपने भगवान श्रीकृष्ण के परमभक्त पाण्डवों के कुल में जन्म लिया है अतः ये वचन आप ही के योग्य हैं। हे राजन्! हम यह नहीं जानते कि संसार के जीवों को कौन क्लेश देता है। शास्त्रों में भी इसका निरूपण अनेक प्रकार से किया गया है। जो द्वैत को नहीं मानता वह दुःख का कारण अपने आप को ही स्वीकार करता हैं। कोई प्रारब्ध को ही दुःख का कारण मानता है और कोई कर्म को ही दुःख का निमित्त समझता है। कतिपय विद्वान स्वभाव को और कतिपय ईश्वर को भी दुःख का कारण मानते हैं। अतः हे राजन्! अब आप ही निश्चित कीजिये कि दुःख का कारण कौन है।”
सम्राट परीक्षित उस बैल के वचनों को सुन कर बोले – “हे वृषभ! आप अवश्य ही बैल के रूप में धर्म हैं और यह गौरूपिणी पृथ्वी माता है। आप धर्म के मर्म को भली-भाँति जानते हैं। आप किसी की चुगली नहीं कर सकते इसीलिये आप दुःख देने वाले का नाम नहीं बता रहे हैं। हे धर्म! सतयुग में आपके तप, पवित्रता, दया और सत्य चार चरण थे। त्रेता में तीन चरण रह गये, द्वापर में दो ही रह गये और अब इस दुष्ट कलियुग के कारण आपका एक ही चरण रह गया है। यह अधर्मरूपी कलियुग अपने असत्य से उस चरण को भी नष्ट करने का प्रयत्न कर रहा है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन से दुष्ट पापी शूद्र राजा लोग इस गौरूपिणी पृथ्वी को भोगेंगे इसी कारण से यह माता भी दुःखी हैं।”
इतना कह कर राजा परीक्षीत ने उस पापी शूद्र राजवेषधारी कलियुग को मारने के लिये अपनी तीक्ष्ण धार वाली तलवार निकाली। कलियुग ने भयभीत होकर अपने राजसी वेष को उतार कर राजा परीक्षित के चरणों में गिर गया और त्राहि-त्राहि कहने लगा। राजा परीक्षित बड़े शरणागत वत्सल थे, उनहोंने शरण में आये हुये कलियुग को मारना उचित न समझा और कलियुग से कहा – “हे कलियुग! तू मेरे शरण में आ गया है इसलिये मैंने तुझे प्राणदान दिया। किन्तु अधर्म, पाप, झूठ, चोरी, कपट, दरिद्रता आदि अनेक उपद्रवों का मूल कारण केवल तू ही है। अतः तू मेरे राज्य से तुरन्त निकल जा और लौट कर फिर कभी मत आना।”
राजा परीक्षित के इन वचनों को सुन कर कलियुग ने कातर वाणी में कहा – “हे राजन्! आपका राज्य तो सम्पूर्ण पृथ्वी पर है, आपके राज्य से बाहर ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ पर कि मैं निवास कर सकूँ। हे भूपति! आप बड़े दयालु हैं, आपने मुझे शरण दिया है। अब दया करके मेरे निवास का भी कुछ न कुछ प्रबन्ध आपको करना ही होगा।”
कलियुग इस तरह कहने पर राजा परीक्षित सोच में पड़ गये। फिर विचार कर के उन्होंने कहा – “हे कलियुग! द्यूत, मद्यपान, परस्त्रीगमन और हिंसा इन चार स्थानों में असत्य, मद, काम और क्रोध का निवास होता है। इन चार स्थानों में निवास करने की मैं तुझे छूट देता हूँ।” इस पर कलियुग बोला – “हे उत्तरानन्दन! ये चार स्थान मेरे निवास के लिये अपर्याप्त हैं। दया करके कोई और भी स्थान मुझे दीजिये।” कलियुग के इस प्रकार माँगने पर राजा परीक्षित ने उसे पाँचवा स्थान ‘स्वर्ण’ दिया।
कलियुग इन स्थानों के मिल जाने से प्रत्यक्षतः तो वहाँ से चला गया किन्तु कुछ दूर जाने के बाद अदृष्य रूप में वापस आकर राजा परीक्षित के स्वर्ण मुकुट में निवास करने लगा।