गुरुवार, 23 सितंबर 2010

                                                                                     - पं. प्रेमकुमार शर्माव्यक्ति जैसे ही जीवन यात्रा के अंतिम बिन्दु में पहुँच पार्थिव शरीर को त्यागता है तो उसे मृत कहते हैं। देह धारण कर कभी अपने लिए तो कभी परिवार के लिए जो भी शुभ-अशुभ कर्म एकत्र किए उन्हीं के साथ इस अन्नत ब्रह्माण्ड में भ्रमण करता है। जहाँ का वातावरण धरती की तरह सुखद नहीं है। वहाँ कोई जलाशय, आश्रय भी नहीं, वर्षों का दिन-मास आदि होता है।

जहाँ अंधकार ही अंधकार, तीक्ष्ण गर्मी या सर्दी ही सर्दी है। इस प्रकार दुरूह मार्ग का वर्णन गरूड़ पुराण में ऋषियों ने किया है। ऐसी कोई ऋतु व हवा नहीं है जो उसे क्षणिक विश्राम व आराम दे सके। इस प्रकार के मार्ग न सिर्फ काल्पनिक है बल्कि वैज्ञानिक व खगोल की खोज से स्पष्ट भी हो चुका हैं। जिसे आम भाषा में स्वर्ग व नर्क के नाम से भी जाना जाता है। इसलिए जीवन यात्रा के अंतिम बिन्दु में पहुँचे हुए व्यक्ति जो कि प्रत्यक्ष रूप से नहीं किन्तु सूक्ष्म रूप से ब्रह्माण्ड के वातावरण में उपस्थित है। अनेकानेक वेद पुराणों के माध्यम से ऋषियों ने उसकी सुगति हेतु अंतिम संस्कार व श्राद्ध आदि कर्म बताएँ हैं।

प्राचीन ऋषियों ने सूक्ष्म ज्ञान से न केवल पृथ्वी पर बल्कि उसके अन्यत्र ग्रह, उपग्रहों में देव, दनुज, नाग, किन्नर आदि के उपस्थित होने की पुष्टि की है। अर्थात्‌ मृत्यु के पश्चात्‌ व्यक्ति की आत्मा अपने अस्तित्व को तलाशती रहती है। भगवान श्रीकृष्ण ने शरीर के परिवर्तन बाल, युवा, वृद्धावस्था को बताया है जिसे हम प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं, प्रभु ने आत्मा की अमरता को गीता के इस श्लोक से व्यक्त किया है-

वसांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्‌णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है। अनेक तथ्यों से सिद्ध हो जाता हैं कि व्यक्ति भौतिक शरीर को त्यागकर परलोक की यात्रा करता है। इसे सुगति देने हेतु प्रत्येक परिवार व व्यक्ति को संबंधित पूर्वजों का श्राद्ध, पिण्डदान, तर्पण आदि कर्म बड़ी पवित्रता व आस्था से करना चाहिए। क्योंकि पितर पवित्र क्रिया होने पर और देवता भक्त के भाव शुद्ध होने पूजा ग्रहण करते हैं। इसलिए पितृ कार्य में अधिक सावधानी, संयम, पवित्रता की जरूरत होती है।

आज भौतिक समाज संस्कृति व संस्कारों पर यह कह कर पर्दा डालने में लगा हुआ है कि यह तो अंधविश्वास है। आखिर जो मृत हो चुका भला उसे श्राद्ध व तर्पण आदि कर्मों से क्या लाभ होगा। जो दानादि उसके निमित्त किए जाते हैं भला उसे मिलेंगे भी या नहीं, इस तरह के संकीर्ण प्रश्नों के भार से दबा जा रहा हैं।

जो तत्परता से श्राद्ध आदि कर्म करते हैं, उनके पूर्वजों को गति से सुगति प्राप्त होती हैं। परिणमतः उनकी (श्राद्ध) कर्ता की प्रगति व उन्नति होती है। सुख, शांति, यश, वैभव, स्वस्थ जीवन, पुत्र, धन आदि उसे प्राप्त होते हैं। जो अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार, श्रद्धा, तर्पण आदि विधिपूर्वक न करके उसे सिर्फ व्यर्थ व औपचारिक समझते हैं उन्हें पैतृक प्रकोप से शारीरक कष्ट, आंतरिक पीड़ाएँ, बुरे स्वप्न, या स्वप्न में पूर्वजों का दर्शन, संतानहीनता, अकाल मृत्यु, धन, हानि, परिवार में कलह, दुर्घटना व अपमान प्राप्त होता है।

उस घर व परिवार का किसी प्रकार कल्याण नहीं होता ऐसा शास्त्रों में उल्लेख मिलता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को श्राद्ध अपने वैभव के अनुसार करना चाहिए। जो धनहीन है वह शाक मात्र से, जो शाक भी नहीं खरीद सकते वह घास मात्र गाय को खिलाकर और जो घास भी नहीं खरीदने की सामर्थ्य रखता है वह निर्जन स्थान में दोनों हाथ ऊपर उठाकर अपने पूर्वजों से क्षमा प्रार्थना करके उनका श्राद्ध संपन्न करें ऐसा पुराणों में उल्लेख है।

श्राद्ध को पितृकर्म, पितृ पूजा, पितृ यज्ञ, आदि के नाम से भी जाना जाता है। मृत्यु को प्राप्त हुए पूर्वजों को पितर के नाम से जाना जाता है, उनकी आत्म तृप्ति व खुद के कल्याण हेतु धर्म ग्रंथों में श्राद्ध का उल्लेख मिलता है। भला कौन ऐसा है जो अपने पितरों की सुगति रोक कर अपनी प्रगति कर सकता हैं, क्योंकि पितर उससे पहले हैं पहले उनकी सुगति होगी तभी हमारी और हमारे समाज व देश की प्रगति होगी।

माता-पिता जीवन का आधार हैं, जिनकी कृपा से सुरक्षित जीवन व ज्ञान प्राप्त होता है। प्रत्येक व्यक्ति पर पितृ, देव, ऋषि ऋणों का भार रहता है। जिसे व्यक्ति यथा समय पितृ यज्ञ, देव यज्ञ, ऋषि यज्ञ, करके चुका सकता है। श्राद्ध शब्द ही श्रद्धा का प्रतीक है।

श्राद्ध के जरूरी तथ्यः- तिथि, समय, शुद्धता, नेपाली कम्बल या कुश, काष्ठ का आसन, चाँदी, कुश, जल, गंगाजल, गौ दूध, जौ, काले तिल, शहद, तुलसीदल, सफेद व सुगन्धित फूल, सदाचारी व संयमित ब्राह्मण, श्रद्धा व विश्वास।

श्राद्ध में यह न करें:- क्रोध, प्रमाद, आलस्य, अपवित्रता, व्रत, मैथुन, तैलमर्दन, मांसभक्षण, मद्यपान, धू्म्रपान, दूसरे के अन्न का भक्षण, लोहे व मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग आदि न करें। किसी निमंत्रित व्यक्ति को कटुशब्द न कहें, बिल्व पत्र, अधिक सुगंध वाले लाल व काले फूलों का प्रयोग न करें। बासी अन्न, कीड़े, बाल पड़ा हुआ अन्न, कुत्ते द्वारा दृश्य, पहने हुए वस्त्र से ढका हुआ अन्न, बैंगन, मसूर, अरहर, गोल लौकी, कुम्हड़ा, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला जीरा व काला नमक, गाजर, आदि को न प्रयोग करें न परोसे।

श्राद्ध का समयः- श्राद्ध प्रतिवर्ष आश्विन कृष्ण से प्रारम्भ होकर अश्विन अमावस तक 15 दिनों तक चलते हैं। जो इस वर्ष 23 सितंबर 2010 से आरम्भ हो रहे हैं। जिसे पितृपक्ष, श्राद्ध पक्ष या महालयपक्ष कहा जाता है।

किसका श्राद्ध कौन करे? - पिता के श्राद्ध का अधिकार उसके पुत्र को ही है किन्तु जिस पिता के कई पुत्र हो उसका श्राद्ध उसके बड़े पुत्र, जिसके पुत्र न हो उसका श्राद्ध उसकी स्त्री, जिसके पत्नी नहीं हो, उसका श्राद्ध उसके सगे भाई, जिसके सगे भाई न हो, उसका श्राद्ध उसके दामाद या पुत्री के पुत्र (नाती) को और परिवार में कोई न होने पर उसने जिसे उत्तराधिकारी बनाया हो वह व्यक्ति उसका श्राद्ध कर सकता है।

श्राद्ध की तिथिः- पितृगणों का श्राद्ध उनकी मृत्यु तिथि के अनुसार किया जाता है। किन्तु जिनकी मृत्यु दुर्घटना, अस्त्र, शस्त्र, जीव, पशु, विश, आत्महत्या, जलकर, डूबकर, विद्युत, गिरने आदि कारणों से हुई हो उनकी ज्ञात तिथि को छोड़कर चतुर्दशी के दिन श्राद्ध किया जाता है। जिनकी तिथि ज्ञात नहीं होती उनका श्राद्ध आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस को जिसे सर्वपितृ श्राद्ध कहा जाता है इसी दिन स्नानादि कर पितृ विसर्जन कर दिया जाता है।

जो अपने पूर्वजों का श्राद्ध नहीं करते, उन्हें पितरों के शाप से रोग, शोक, धन, पुत्र हानि, अकाल मृत्यु, गर्भपात, अत्याधिक प्रसव पीड़ा, मृत्युतुल्य कष्ट, गरीबी, झगड़े, वैवाहिक जीवन में असंतोष, अनेक प्रकार की व्याधियाँ, बुरे स्वप्न आते हैं, जिसे पितृदोष के रूप में जाना जाता है। इस संदर्भ आदित्यपुराण में उल्लेख है-

न सन्ति पितरश्चे्‌ति कृत्वा मनसि यो नरः।
श्राद्धं न कुरूते तत्र तस्य रक्तं पिबन्ति ते ॥

श्राद्ध के संदर्भ ब्रह्म,गरूड़, मत्स्यपुराण तथा विभिन्न स्मृतियों में उल्लेख मिलता है। पाराशर, जाबालि आदि ऋषियों तथा पुराणों में श्राद्ध करने पर सर्वत्र जोर दिया गया है। ब्रह्मपुराण के अनुसार हव्य से देवताओं का और कव्य से पितृगणों का तथा अन्न द्वारा बंधुजनों का स्वागत करना चाहिए।

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