गुरुवार, 23 सितंबर 2010

कौआ==पितृ पक्ष

कौआ सर्वहारी पक्षी है जो कहीं भी रह सकता है। इसकी प्रमुख जरूरत आवास और भोजन की है। बड़े पेड़ों पर रहने वाला यह पक्षी शहरों से इसलिए पलायन करने लगा है कि अब शहरों में इनके लिए सुरक्षित आवास नहीं रह गया है। शहर का तेजी से विस्तार और बड़े पेड़ों की कमी इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार है। पितृ पक्ष और कौए के संदर्भ में कुछ ज्योतिषाचार्य क्या मानते है।                       पंडित विद्याधर बड़गैंया के अनुसार कौआ एक चाण्डाल पक्षी है। इसका पितरों से कोई संबंध नहीं है। फिर भी लोक रीति के अनुसार लोग पितरों की शांति के लिए कौए को पितृ पक्ष में भोजन कराते हैं। दरअसल सिर्फ कौए को ही नहीं सभी जीवों को भोजन कराने का विधान है।

पितृ पक्ष में भी कौआ, कुत्ता, गौ और अन्य जीव-जंतुओं को भोजन कराया जाता है। यह इसलिए कि सर्वे भवंतु सुखीनः अर्थात् सब सुखी रहें।

ज्योतिषाचार्य पं. वासुदेव शास्त्री कहते हैं कि रामचरित मानस में एक वर्णन है जिसमें इंद्र के पुत्र जयंत ने कौए का रूप धारण कर सीता जी की शक्ति की परीक्ष ली थी। उस समय भगवान राम ने उसकी एक आँख छीन ली थी और श्राप दिया था कि वर्ष भर में तुम्हें सिर्फ पंद्रह दिन ही स्वच्छ भोजन करने को मिलेगा, शेष दिन तुम गंदगी का भक्षण ही करोगे।

इसीलिए सिर्फ पितृ पक्ष में ही कौए को अच्छा खाने को मिलता है शेष दिन उसे गंदगी का ही भक्षण करना पड़ता है।

पं. हनुमान प्रसाद दुबे ज्योतिषाचार्य - पितृ पक्ष और कौए को लेकर कई किस्म की किवदंतियाँ है। शास्त्रों में इसके विशेष प्रमाण तो नहीं है लेकिन कौओं को पितर के रूप में माना जाता है। कौए का काला रंग होता है जो राहू-केतू का रूप माना जाता है।

राहू-केतू के कारण ही पितृदोष लगता है। इसलिए पितृ पक्ष में कौए को भोजन कराने से पितरों को शांति मिलती है और वे तृप्त होकर परलोक जाते हैं। 
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                                                                                     - पं. प्रेमकुमार शर्माव्यक्ति जैसे ही जीवन यात्रा के अंतिम बिन्दु में पहुँच पार्थिव शरीर को त्यागता है तो उसे मृत कहते हैं। देह धारण कर कभी अपने लिए तो कभी परिवार के लिए जो भी शुभ-अशुभ कर्म एकत्र किए उन्हीं के साथ इस अन्नत ब्रह्माण्ड में भ्रमण करता है। जहाँ का वातावरण धरती की तरह सुखद नहीं है। वहाँ कोई जलाशय, आश्रय भी नहीं, वर्षों का दिन-मास आदि होता है।

जहाँ अंधकार ही अंधकार, तीक्ष्ण गर्मी या सर्दी ही सर्दी है। इस प्रकार दुरूह मार्ग का वर्णन गरूड़ पुराण में ऋषियों ने किया है। ऐसी कोई ऋतु व हवा नहीं है जो उसे क्षणिक विश्राम व आराम दे सके। इस प्रकार के मार्ग न सिर्फ काल्पनिक है बल्कि वैज्ञानिक व खगोल की खोज से स्पष्ट भी हो चुका हैं। जिसे आम भाषा में स्वर्ग व नर्क के नाम से भी जाना जाता है। इसलिए जीवन यात्रा के अंतिम बिन्दु में पहुँचे हुए व्यक्ति जो कि प्रत्यक्ष रूप से नहीं किन्तु सूक्ष्म रूप से ब्रह्माण्ड के वातावरण में उपस्थित है। अनेकानेक वेद पुराणों के माध्यम से ऋषियों ने उसकी सुगति हेतु अंतिम संस्कार व श्राद्ध आदि कर्म बताएँ हैं।

प्राचीन ऋषियों ने सूक्ष्म ज्ञान से न केवल पृथ्वी पर बल्कि उसके अन्यत्र ग्रह, उपग्रहों में देव, दनुज, नाग, किन्नर आदि के उपस्थित होने की पुष्टि की है। अर्थात्‌ मृत्यु के पश्चात्‌ व्यक्ति की आत्मा अपने अस्तित्व को तलाशती रहती है। भगवान श्रीकृष्ण ने शरीर के परिवर्तन बाल, युवा, वृद्धावस्था को बताया है जिसे हम प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं, प्रभु ने आत्मा की अमरता को गीता के इस श्लोक से व्यक्त किया है-

वसांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्‌णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है। अनेक तथ्यों से सिद्ध हो जाता हैं कि व्यक्ति भौतिक शरीर को त्यागकर परलोक की यात्रा करता है। इसे सुगति देने हेतु प्रत्येक परिवार व व्यक्ति को संबंधित पूर्वजों का श्राद्ध, पिण्डदान, तर्पण आदि कर्म बड़ी पवित्रता व आस्था से करना चाहिए। क्योंकि पितर पवित्र क्रिया होने पर और देवता भक्त के भाव शुद्ध होने पूजा ग्रहण करते हैं। इसलिए पितृ कार्य में अधिक सावधानी, संयम, पवित्रता की जरूरत होती है।

आज भौतिक समाज संस्कृति व संस्कारों पर यह कह कर पर्दा डालने में लगा हुआ है कि यह तो अंधविश्वास है। आखिर जो मृत हो चुका भला उसे श्राद्ध व तर्पण आदि कर्मों से क्या लाभ होगा। जो दानादि उसके निमित्त किए जाते हैं भला उसे मिलेंगे भी या नहीं, इस तरह के संकीर्ण प्रश्नों के भार से दबा जा रहा हैं।

जो तत्परता से श्राद्ध आदि कर्म करते हैं, उनके पूर्वजों को गति से सुगति प्राप्त होती हैं। परिणमतः उनकी (श्राद्ध) कर्ता की प्रगति व उन्नति होती है। सुख, शांति, यश, वैभव, स्वस्थ जीवन, पुत्र, धन आदि उसे प्राप्त होते हैं। जो अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार, श्रद्धा, तर्पण आदि विधिपूर्वक न करके उसे सिर्फ व्यर्थ व औपचारिक समझते हैं उन्हें पैतृक प्रकोप से शारीरक कष्ट, आंतरिक पीड़ाएँ, बुरे स्वप्न, या स्वप्न में पूर्वजों का दर्शन, संतानहीनता, अकाल मृत्यु, धन, हानि, परिवार में कलह, दुर्घटना व अपमान प्राप्त होता है।

उस घर व परिवार का किसी प्रकार कल्याण नहीं होता ऐसा शास्त्रों में उल्लेख मिलता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को श्राद्ध अपने वैभव के अनुसार करना चाहिए। जो धनहीन है वह शाक मात्र से, जो शाक भी नहीं खरीद सकते वह घास मात्र गाय को खिलाकर और जो घास भी नहीं खरीदने की सामर्थ्य रखता है वह निर्जन स्थान में दोनों हाथ ऊपर उठाकर अपने पूर्वजों से क्षमा प्रार्थना करके उनका श्राद्ध संपन्न करें ऐसा पुराणों में उल्लेख है।

श्राद्ध को पितृकर्म, पितृ पूजा, पितृ यज्ञ, आदि के नाम से भी जाना जाता है। मृत्यु को प्राप्त हुए पूर्वजों को पितर के नाम से जाना जाता है, उनकी आत्म तृप्ति व खुद के कल्याण हेतु धर्म ग्रंथों में श्राद्ध का उल्लेख मिलता है। भला कौन ऐसा है जो अपने पितरों की सुगति रोक कर अपनी प्रगति कर सकता हैं, क्योंकि पितर उससे पहले हैं पहले उनकी सुगति होगी तभी हमारी और हमारे समाज व देश की प्रगति होगी।

माता-पिता जीवन का आधार हैं, जिनकी कृपा से सुरक्षित जीवन व ज्ञान प्राप्त होता है। प्रत्येक व्यक्ति पर पितृ, देव, ऋषि ऋणों का भार रहता है। जिसे व्यक्ति यथा समय पितृ यज्ञ, देव यज्ञ, ऋषि यज्ञ, करके चुका सकता है। श्राद्ध शब्द ही श्रद्धा का प्रतीक है।

श्राद्ध के जरूरी तथ्यः- तिथि, समय, शुद्धता, नेपाली कम्बल या कुश, काष्ठ का आसन, चाँदी, कुश, जल, गंगाजल, गौ दूध, जौ, काले तिल, शहद, तुलसीदल, सफेद व सुगन्धित फूल, सदाचारी व संयमित ब्राह्मण, श्रद्धा व विश्वास।

श्राद्ध में यह न करें:- क्रोध, प्रमाद, आलस्य, अपवित्रता, व्रत, मैथुन, तैलमर्दन, मांसभक्षण, मद्यपान, धू्म्रपान, दूसरे के अन्न का भक्षण, लोहे व मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग आदि न करें। किसी निमंत्रित व्यक्ति को कटुशब्द न कहें, बिल्व पत्र, अधिक सुगंध वाले लाल व काले फूलों का प्रयोग न करें। बासी अन्न, कीड़े, बाल पड़ा हुआ अन्न, कुत्ते द्वारा दृश्य, पहने हुए वस्त्र से ढका हुआ अन्न, बैंगन, मसूर, अरहर, गोल लौकी, कुम्हड़ा, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला जीरा व काला नमक, गाजर, आदि को न प्रयोग करें न परोसे।

श्राद्ध का समयः- श्राद्ध प्रतिवर्ष आश्विन कृष्ण से प्रारम्भ होकर अश्विन अमावस तक 15 दिनों तक चलते हैं। जो इस वर्ष 23 सितंबर 2010 से आरम्भ हो रहे हैं। जिसे पितृपक्ष, श्राद्ध पक्ष या महालयपक्ष कहा जाता है।

किसका श्राद्ध कौन करे? - पिता के श्राद्ध का अधिकार उसके पुत्र को ही है किन्तु जिस पिता के कई पुत्र हो उसका श्राद्ध उसके बड़े पुत्र, जिसके पुत्र न हो उसका श्राद्ध उसकी स्त्री, जिसके पत्नी नहीं हो, उसका श्राद्ध उसके सगे भाई, जिसके सगे भाई न हो, उसका श्राद्ध उसके दामाद या पुत्री के पुत्र (नाती) को और परिवार में कोई न होने पर उसने जिसे उत्तराधिकारी बनाया हो वह व्यक्ति उसका श्राद्ध कर सकता है।

श्राद्ध की तिथिः- पितृगणों का श्राद्ध उनकी मृत्यु तिथि के अनुसार किया जाता है। किन्तु जिनकी मृत्यु दुर्घटना, अस्त्र, शस्त्र, जीव, पशु, विश, आत्महत्या, जलकर, डूबकर, विद्युत, गिरने आदि कारणों से हुई हो उनकी ज्ञात तिथि को छोड़कर चतुर्दशी के दिन श्राद्ध किया जाता है। जिनकी तिथि ज्ञात नहीं होती उनका श्राद्ध आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस को जिसे सर्वपितृ श्राद्ध कहा जाता है इसी दिन स्नानादि कर पितृ विसर्जन कर दिया जाता है।

जो अपने पूर्वजों का श्राद्ध नहीं करते, उन्हें पितरों के शाप से रोग, शोक, धन, पुत्र हानि, अकाल मृत्यु, गर्भपात, अत्याधिक प्रसव पीड़ा, मृत्युतुल्य कष्ट, गरीबी, झगड़े, वैवाहिक जीवन में असंतोष, अनेक प्रकार की व्याधियाँ, बुरे स्वप्न आते हैं, जिसे पितृदोष के रूप में जाना जाता है। इस संदर्भ आदित्यपुराण में उल्लेख है-

न सन्ति पितरश्चे्‌ति कृत्वा मनसि यो नरः।
श्राद्धं न कुरूते तत्र तस्य रक्तं पिबन्ति ते ॥

श्राद्ध के संदर्भ ब्रह्म,गरूड़, मत्स्यपुराण तथा विभिन्न स्मृतियों में उल्लेख मिलता है। पाराशर, जाबालि आदि ऋषियों तथा पुराणों में श्राद्ध करने पर सर्वत्र जोर दिया गया है। ब्रह्मपुराण के अनुसार हव्य से देवताओं का और कव्य से पितृगणों का तथा अन्न द्वारा बंधुजनों का स्वागत करना चाहिए।

श्राद्ध कब और कौन करे :


श्रद्धावंत होकर अधोगति से मुक्ति प्राप्ति हेतु किया गया धार्मिक कृत्य- 'श्राद्ध' कहलाता है। भारतीय ऋषियों ने दिव्यानुसंधान करके उस अति अविशिष्ट काल खंड को भी खोज निकाला है जो इस कर्म हेतु विशिष्ट फलदायक है। इसे श्राद्ध पर्व कहते हैं।

यह पक्ष आश्विन कृष्ण पक्ष अर्थात्‌ प्रतिपदा से अमावस्या तक का 15 दिवसीय पक्ष है। इस पक्ष में पूर्णिमा को जोड़ लेने से यह 16 दिवसीय महालय श्राद्ध पक्ष कहलाता है।


इस श्राद्ध पक्ष में हमारे परिवार के दिवंगत व्यक्तियों की अधोगति से मुक्ति प्राप्ति हेतु धार्मिक कृत्य किए जाते हैं। जो भी व्यक्ति जिस तिथि को भी किसी भी माह में मृत्यु को प्राप्त हुआ, इस पक्ष में उसी तिथि को मृतक की आत्मा की शांति हेतु धार्मिक कर्म किए जाते हैं।

इस प्रकरण में भारतीय चाँद्र वर्ष अर्थात्‌ वर्तमान प्रचलित संवत्सर पद्धति की तिथि ली जाती है। आंग्ल सौर वर्ष आधारित दिनांक (घची) से इसकी गणना नहीं की जाती है।

श्राद्ध कब और कौन करे :
- माता-पिता की मरणतिथि के मध्याह्न काल में पुत्र को श्राद्ध करना चाहिए।

- जिस स्त्री के कोई पुत्र न हो, वह स्वयं ही अपने पति का श्राद्ध कर सकती है। 

श्राद्ध पक्ष में घर के कर्म


महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए। यह जिज्ञासा सहजतावश अनेक व्यक्तियों में रहती है। यदि हम किसी भी तीर्थ स्थान, किसी भी पवित्र नदी, किसी भी पवित्र संगम पर नहीं जा पा रहे हैं तो निम्नांकित सरल एवं संक्षिप्त कर्म घर पर ही अवश्य कर लें :-

- प्रतिदिन खीर (अर्थात्‌ दूध में पकाए हुए चावल में शक्कर एवं सुगंधित द्रव्य जैसे इलायची, केसर मिलाकर तैयार की गई सामग्री को खीर कहते हैं) बनाकर तैयार कर लें।

- गाय के गोबर के कंडे को जलाकर पूर्ण प्रज्वलित कर लें।

- उक्त प्रज्वलित कंडे को शुद्ध स्थान में किसी बर्तन में रखकर, खीर से तीन आहुति दे दें।

- इसके नजदीक (पास में ही) जल का भरा हुआ एक गिलास रख दें अथवा लोटा रख दें।

- इस द्रव्य को अगले दिन किसी वृक्ष की जड़ में डाल दें।

- भोजन में से सर्वप्रथम गाय, काले कुत्ते और कौए के लिए ग्रास अलग से निकालकर उन्हें खिला दें। इसके पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराएँ फिर स्वयं भोजन ग्रहण करें। पश्चात ब्राह्मणों को यथायोग्य दक्षिणा दें।
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shraadh



पुराने गानों में कौओं के गानों की प्रासंगिकता कभी थी, लेकिन अब ये अप्रासंगिक हो चुके हैं। शायद इसकी वजह यह है झूठ बोलने वालों की तादाद जितनी गति से बढ़ी है उसकी दुगनी गति से कौओं की संख्या घटी है। इससे झूठ बोलने वालों की तो बन पड़ी है क्योंकि जब कौए ही नहीं तो काटेगा कौन? इनका डर तो खत्म हो गया पर समस्या उन लोगों के लिए बढ़ गई जो इन काले कौओं के माध्यम से अपने पुरखों को भोजन भेजा करते हैं।

कौओं का इस समय जिक्र करने की जरूरत सिर्फ इस लिए आन पड़ी क्योंकि पितृ पक्ष दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार पखवाड़े में कौओं को कागौर दिया जाता है। जिससे पुरखों की आत्मा को तृप्ति मिलती है। कथानक है कि पितृ पक्ष में पुरखों की आत्माएँ परलोक से इहलोक में घूमने निकलती हैं और अपनी क्षुधा वे कौओं के माध्यम से स्वजनों द्वारा दिए गए कागौर को ग्रहण कर शांत करतीं हैं।

कौआ- भाईचारे का प्रतीक : सामूहिक भाईचारे का कौआ प्रमुख परिचायक पक्षी होता है। इसका उदाहरण जाने-अनजाने कई बार दिखाई देता है। अगर किसी एक कौए को भी कहीं कोई भोजन सामग्री दिखाई दे जाती है तो हव अकेला कभी खाने की कोशिश नहीं करता वरन्‌ काँव-काँव करके अपने जातिगत समूह को भी बुला लेता है। इसके बाद बगैर किसी आपसी लड़ाई के सभी कौए मिल-बाँट कर भोजन खाते हैं। आपसी भाईचारे का इससे बड़ा प्रतीक और क्या हो सकता है।

सफाई का आसमानी दरोगा : गंदगी को सफचट कर देने में कौए की अहम भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। कौआ एक ऐसा पक्षी होता है, जिसे जो भी मिले खा लेता है। यही वजह है कि इसे सफाई का आसमानी दरोगा भी कहा जाता है।


पर्यावरणविद् भी मानते हैं कि कौओं की एक निश्चित आबादी का बना रहना पर्यावरण की दृष्टि से लाभकारी है। इस तरह कहा जा सकता है कि सिर्फ पितरों की तृप्ति का माध्यम ही नहीं वरन् पर्यावरण की दृष्टि से भी इनकी संख्या का घटना चिंताजनक है। प्रकृति में सभी प्राणियों का अपना एक अहम् स्थान है।

पक्षियों की संख्या में कमी : प्राणी जगत के विशेषज्ञों का इस संबंध में कहना है कि हर प्राणी उसी जगह को अपना आवास बनाना पसंद करता है, जहाँ भोजन की सहज उपलब्धता हो। ऐसे में जब शहर काँक्रीट हो चुके हैं और वृक्षों की न्यूनता हो पक्षियों की संख्या में कमी होना स्वाभाविक है।

अब न तो आँगन में दाने चुगने को मिलते हैं और ना ही नजर आती है, फुदकती हुई गौरेया। कहीं न कहीं इन सबके पीछे मानव निर्मित हालातों के असर से इंकार नहीं किया जा सकता। 
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श्राद्ध




भाद्रपद की पूर्णिमा एवं अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक का समय पितृ पक्ष का माना जाता है। इस वर्ष श्राद्ध पर्व 7 अक्टूबर को समाप्त हो जाएँगे। इस दौरान मृत पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता है। जिस तिथि को किसी पूर्वज का देहांत होता है उसी तिथि को उनका श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध के दौरान पंडितों को खीर-पूरी खिलाने का महत्व होता है। माना जाता है कि इससे स्वर्गीय पूर्वजों की आत्मा तृप्त होती है।

पुरुष के श्राद्ध में ब्राह्मण को तथा स्त्री के श्राद्ध में ब्राह्मण महिला को भोजन कराया जाता है। लोग अपनी श्रद्धा अनुसार खीर-पूरी तथा सब्जियाँ बनाकर उन्हें भोजन कराते हैं तथा बाद में वस्त्र व दक्षिणा देकर व पान खिलाकर विदा करते हैं।

सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर अपने पूर्वज का चित्र रखकर पंडित नियमपूर्वक पूजा व संकल्प कराते हैं। इस दिन बिना प्याज व लहसुन का भोजन तैयार किया जाता है। बाद में पंडित व पंडिताइन के श्रद्धापूर्वक पैर छूकर उन्हें भोजन कराते हैं।
भोजन में खीर-पूरी व पनीर, सीताफल, अदरक व मूली का लच्छा तैयार किया जाता है। उड़द की दाल के बड़े बनाकर दही में डाले जाते हैं। पंडित सर्वप्रथम गाय का नैवेद्य निकलवाते हैं। इसके अलावा कौओं व चिड़िया, कुत्ते के लिए भी ग्रास निकालते हैं।

पितृ अमावस्या को आखिरी श्राद्ध करके पितृ विसर्जन किया जाता है तथा पितरों को विदा किया जाता है।

कई जगहों पर अमावस्या के दिन पंडित बहुत कम मिलते हैं क्योंकि एक धारणा यह है कि श्राद्ध का भोजन या तो कुल पंडित या किसी खास ब्राह्मण को कराया जाता है।

कई जगह व्यस्त होने के चलते भी पंडितों की कमी रहती है। मान्यता है कि ब्राह्मणों को खीर-पूरी खिलाने से पितृ तृप्त होते हैं। यही वजह है कि इस दिन खीर-पूरी ही बनाई जाती है। 
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शनिवार, 4 सितंबर 2010

कलियुग का आगमन

धर्मराज युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव पाँचों पाण्डव महापराक्रमी परीक्षित को राज्य देकर महाप्रयाण हेतु उत्तराखंड की ओर चले गये और वहाँ जाकर पुण्यलोक को प्राप्त हुये। राजा परीक्षित धर्म के अनुसार तथा ब्राह्नणों की आज्ञानुसार शासन करने लगे। उत्तर नरेश की पुत्री इरावती के साथ उन्होंने अपना विवाह किया और उस उत्तम पत्नी से उनके चार पुत्र उत्पन्न हुये। आचार्य कृप को गुरु बना कर उन्होंने जाह्नवी के तट पर तीन अश्वमेघ यज्ञ किये। उन यज्ञों में अनन्त धन राशि ब्रह्मणों को दान में दी और दिग्विजय हेतु निकल गये।
उन्हीं दिनों धर्म ने बैल का रूप बना कर गौरूपिणी पृथ्वी से सरस्वती तट पर भेंट किया। गौरूपिणी पृथ्वी की नेत्रों से अश्रु बह रहे थे और वह श्रीहीन सी प्रतीत हो रही थी। धर्म ने पृथ्वी से पूछा – “हे देवि! तुम्हारा मुख मलिन क्यों हो रहा है? किस बात की तुम्हें चिन्ता है? कहीं तुम मेरी चिन्ता तो नहीं कर रही हो कि अब मेरा केवल एक पैर ही रह गया है या फिर तुम्हें इस बात की चिन्ता है कि अब तुम पर शूद्र राज्य करेंगे?”
पृथ्वी बोली – “हे धर्म! तुम सर्वज्ञ होकर भी मुझ से मेरे दुःख का कारण पूछते हो! सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, सन्तोष, त्याग, शम, दम, तप, सरलता, क्षमता, शास्त्र विचार, उपरति, तितिक्षा, ज्ञान, वैराग्य, शौर्य, तेज, ऐश्वर्य, बल, स्मृति, कान्ति, कौशल, स्वतन्त्रता, निर्भीकता, कोमलता, धैर्य, साहस, शील, विनय, सौभाग्य, उत्साह, गम्भीरता, कीर्ति, आस्तिकता, स्थिरता, गौरव, अहंकारहीनता आदि गुणों से युक्त भगवान श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन के कारण घोर कलियुग मेरे ऊपर आ गया है। मुझे तुम्हारे साथ ही साथ देव, पितृगण, ऋषि, साधु, सन्यासी आदि सभी के लिये महान शोक है। भगवान श्रीकृष्ण के जिन चरणों की सेवा लक्ष्मी जी करती हैं उनमें कमल, वज्र, अंकुश, ध्वजा आदि के चिह्न विराजमान हैं और वे ही चरण मुझ पर पड़ते थे जिससे मैं सौभाग्यवती थी। अब मेरा सौभाग्य समाप्त हो गया है।”
जब धर्म और पृथ्वी ये बातें कर ही रहे थे कि मुकुटधारी शूद्र के रूप में कलियुग वहाँ आया और उन दोनों को मारने लगा।
राजा परीक्षित दिग्विजय करते हुये वहीं पर से गुजर रहे थे। उन्होंने मुकुटधारी शूद्र को हाथ में डण्डा लिये एक गाय और एक बैल को बुरी तरह पीटते देखा। वह बैल अत्यन्त सुन्दर था, उसका श्वेत रंग था और केवल एक पैर था। गाय भी कामधेनु के समान सुन्दर थी। दोनों ही भयभीत हो कर काँप रहे थे। महाराज परीक्षित अपने धनुषवाण को चढ़ाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी में ललकारे – “रे दुष्ट! पापी! नराधम! तू कौन है? इन निरीह गाय तथा बैल क्यों सता रहा है? तू महान अपराधी है। तेरे अपराध का उचित दण्ड तेरा वध ही है।” उनके इन वचनों को सुन कर कलियुग भय से काँपने लगा।
महाराज ने बैल से पूछा कि हे बैल तुम्हारे तीन पैर कैस टूटे गये हैं। तुम बैल हो या कोई देवता हो। हे धेनुपुत्र! तुम निर्भीकतापूर्वक अपना अपना वृतान्त मुझे बताओ। हे गौमाता! अब तुम भयमुक्त हो जाओ। मैं दुष्टों को दण्ड देता हूँ। किस दुष्ट ने मेरे राज्य में घोर पाप कर के पाण्डवों की पवित्र कीर्ति में यह कलंक लगाया है? चाहे वह पापी साक्षात् देवता ही क्यों न हो मैं उसके भी हाथ काट दूँगा। तब धर्म बोला – “हे महाराज! आपने भगवान श्रीकृष्ण के परमभक्त पाण्डवों के कुल में जन्म लिया है अतः ये वचन आप ही के योग्य हैं। हे राजन्! हम यह नहीं जानते कि संसार के जीवों को कौन क्लेश देता है। शास्त्रों में भी इसका निरूपण अनेक प्रकार से किया गया है। जो द्वैत को नहीं मानता वह दुःख का कारण अपने आप को ही स्वीकार करता हैं। कोई प्रारब्ध को ही दुःख का कारण मानता है और कोई कर्म को ही दुःख का निमित्त समझता है। कतिपय विद्वान स्वभाव को और कतिपय ईश्वर को भी दुःख का कारण मानते हैं। अतः हे राजन्! अब आप ही निश्चित कीजिये कि दुःख का कारण कौन है।”
सम्राट परीक्षित उस बैल के वचनों को सुन कर बोले – “हे वृषभ! आप अवश्य ही बैल के रूप में धर्म हैं और यह गौरूपिणी पृथ्वी माता है। आप धर्म के मर्म को भली-भाँति जानते हैं। आप किसी की चुगली नहीं कर सकते इसीलिये आप दुःख देने वाले का नाम नहीं बता रहे हैं। हे धर्म! सतयुग में आपके तप, पवित्रता, दया और सत्य चार चरण थे। त्रेता में तीन चरण रह गये, द्वापर में दो ही रह गये और अब इस दुष्ट कलियुग के कारण आपका एक ही चरण रह गया है। यह अधर्मरूपी कलियुग अपने असत्य से उस चरण को भी नष्ट करने का प्रयत्न कर रहा है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन से दुष्ट पापी शूद्र राजा लोग इस गौरूपिणी पृथ्वी को भोगेंगे इसी कारण से यह माता भी दुःखी हैं।”
इतना कह कर राजा परीक्षीत ने उस पापी शूद्र राजवेषधारी कलियुग को मारने के लिये अपनी तीक्ष्ण धार वाली तलवार निकाली। कलियुग ने भयभीत होकर अपने राजसी वेष को उतार कर राजा परीक्षित के चरणों में गिर गया और त्राहि-त्राहि कहने लगा। राजा परीक्षित बड़े शरणागत वत्सल थे, उनहोंने शरण में आये हुये कलियुग को मारना उचित न समझा और कलियुग से कहा – “हे कलियुग! तू मेरे शरण में आ गया है इसलिये मैंने तुझे प्राणदान दिया। किन्तु अधर्म, पाप, झूठ, चोरी, कपट, दरिद्रता आदि अनेक उपद्रवों का मूल कारण केवल तू ही है। अतः तू मेरे राज्य से तुरन्त निकल जा और लौट कर फिर कभी मत आना।”
राजा परीक्षित के इन वचनों को सुन कर कलियुग ने कातर वाणी में कहा – “हे राजन्! आपका राज्य तो सम्पूर्ण पृथ्वी पर है, आपके राज्य से बाहर ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ पर कि मैं निवास कर सकूँ। हे भूपति! आप बड़े दयालु हैं, आपने मुझे शरण दिया है। अब दया करके मेरे निवास का भी कुछ न कुछ प्रबन्ध आपको करना ही होगा।”
कलियुग इस तरह कहने पर राजा परीक्षित सोच में पड़ गये। फिर विचार कर के उन्होंने कहा – “हे कलियुग! द्यूत, मद्यपान, परस्त्रीगमन और हिंसा इन चार स्थानों में असत्य, मद, काम और क्रोध का निवास होता है। इन चार स्थानों में निवास करने की मैं तुझे छूट देता हूँ।” इस पर कलियुग बोला – “हे उत्तरानन्दन! ये चार स्थान मेरे निवास के लिये अपर्याप्त हैं। दया करके कोई और भी स्थान मुझे दीजिये।” कलियुग के इस प्रकार माँगने पर राजा परीक्षित ने उसे पाँचवा स्थान ‘स्वर्ण’ दिया।
कलियुग इन स्थानों के मिल जाने से प्रत्यक्षतः तो वहाँ से चला गया किन्तु कुछ दूर जाने के बाद अदृष्य रूप में वापस आकर राजा परीक्षित के स्वर्ण मुकुट में निवास करने लगा।

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

मंत्र और श्लोक

धार्मिक क्रियाओं में दो शब्द हमेशा आते हैं, मंत्र और श्लोक। कई लोग इसे एक ही मानते हैं लेकिन दोनों में बहुत अंतर है। कई लोग यह नहीं जानते है कि हम किसे मंत्र कहें और किसे श्लोक। इन दोनों के बीच का अंतर केवल संस्कृत जानने वाला ही कर सकता है। मंत्र और श्लोक दोनों अलग-अलग विषय हैं, इन्हें एक नहीं माना जा सकता। आइए जानते हैं कि दोनों में क्या अंतर है, हम किसे मंत्र कहें या किसे श्लोक।
[सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है॥12-13॥ ]
दरअसल मंत्र और श्लोक दोनों ही होते तो संस्कृत में ही हैं, इनकी भाषा और व्याकरण भी लगभग समान होते हैं। अंतर इनकी भाषा और शैली का नहीं है। इनके लिखे जाने को लेकर है। मंत्र वह हैं जो सीधे मन से उत्पन्न हुए, उन्हें लिखकर नहीं बनाया गया। जैसे वेदों की ऋचाएं। वेदों में आई सारी ऋचाएं मंत्र कहलाती हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि वे स्वयं प्रकट हुई थीं, इन्हें किसी ने लिखा नहीं था। मन से उत्पन्न है इसलिए मंत्र कहलाते हैं।श्लोक का अर्थ ठीक इसके विपरीत है।
जो किसी के द्वारा लिखा गया हो, जिसे किसी ने रचा हो, उसे श्लोक  कहते हैं। जैसे भागवत या वाल्मीकि रामायण, महाभारत, ये ग्रंथ धरती पर रहने वाले ऋषि-मुनियों ने लिखे हैं। इसलिए इनमें आने वाले पद्य मंत्र नहीं कहे जा सकते है, ये श्लोक हैं। इन्हें लिखा गया है, ये खुद प्रकट नहीं हुए हैं।भगवान खुद गीता में कहते हेँ कि  क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ॥16॥
इस संपूर्ण जगत्‌ का धाता अर्थात्‌ धारण करने वाला एवं कर्मों के फल को देने वाला, पिता, माता, पितामह, जानने योग्य,  पवित्र ओंकार [  ॐ ]  तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ॥17॥
दुनिया के जितने भी ज्ञात और अज्ञात धर्म हैं सभी में हमें मंत्र और मंत्र शक्ति के बारे अवश्य पढऩे को मिलता है। पुरानी किताबों में हमें उदाहरण सहित पढऩे को मिलता है कि मंत्रों की शक्ति से एक से बढ़कर एक अद्भुत और आश्चर्यजनक कार्य सम्पन्न किये जाते थे। जंगली जानवरों को वश में करना, चाहे जब बारिष ले आना, युद्ध में अपशत्रुओंने को मंत्र शक्ति से क्षण भर में नष्ट कर देना, लाइलाज बीमारियों कों मंत्र शक्ति से पल भर में ही हमेशा के लिये दूर कर देना यंहा तक कि मंत्र शक्ति की सहायता से मृत व्यक्तियों को भी जीवित करने के प्रामाणिक प्रसंग मिलते हैं।

लेकिन आज हम देखते हैं कि मंत्र तो वही हैं किन्तु उनके प्रयोग करने वाले पहले जैसे नहीं बचे। इसी कारण आज मंत्रों में निहित शक्ति लुप्त या गायब हो चुकी है। पहले के साधक मंत्र का प्रयोग करने से पूर्व स्वयं को साधते थे यानि सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, पवित्रता जैसे अनिवार्य नियमों का पालन करते थे। तभी इन साधकों को मंत्र शक्ति का लाभ मिल पाता था। यदि आज भी कोई मंत्र की सच्चाई जानना चाहे तो उसे स्यवं साधना के अनिवार्य नियमों का पालन अवश्य ही करना होगा तभी सच्चाई सामने आ सकती है।अन्यथा साधक हानि ही उठाये गा

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

हनुमान पूजा


पूजा में सावधानी चेतावनी ग्रहस्थी और महिलाएं इन अनुष्ठानो को ना ही करें तो भला हें क्यों कि  हनुमान की पूजा-अर्चना और व्रत में ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।ग्रहस्थी इसे कर पावें शक रहता है
पूजा में सावधानी चेतावनी ग्रहस्थी और महिलाएं इन अनुष्ठानो को ना ही करें तो भला हें क्यों कि  हनुमान की पूजा-अर्चना और व्रत में ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।ग्रहस्थी इसे कर पावे शक रहता है |
हनुमान पूजा का लिंक  

जै हनुमान

एम.एल. आचार्य जी के सहयोग से
 
हनुमान जी को प्रसन्न करना बहुत सरल है। राह चलते उनका नाम स्मरण करने मात्र से ही सारे संकट दूर हो जाते हैं। जो साधक विधिपूर्वक साधना से हनुमान जी की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिए प्रस्तुत हैं कुछ उपयोगी नियम ...
वर्तमान युग में हनुमान साधना तुरंत फल देती है। इसी कारण ये जन-जन के देव माने जाते हैं। इनकी पूजा-अर्चना अति सरल है, इनके मंदिर जगह-जगह स्थित हैं अतः भक्तों को पहुंचने में कठिनाई भी नहीं आती है। मानव जीवन का सबसे बड़ा दुख भय'' है और जो साधक श्री हनुमान जी का नाम स्मरण कर लेता है वह भय से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
हनुमान साधना के कुछ नियम यहां उद्धृत हैं। जिनका पालन करना अति आवश्यक है :
हनुमान साधना में शुद्धता एवं पवित्रता अनिवार्य है। प्रसाद शुद्ध घी का बना होना चाहिए।
हनुमान जी को तिल के तेल में मिल हुए सिंदूर का लेपन करना चाहिए।
हनुमान जी को केसर के साथ घिसा लाल चंदन लगाना चाहिए।
पुष्पों में लाल, पीले बड़े फूल अर्पित करने चाहिए। कमल, गेंदे, सूर्यमुखी के फूल अर्पित करने पर हनुमान जी प्रसन्न होते हैं।
नैवेद्य में प्रातः पूजन में गुड़, नारियल का गोला और लडू, दोपहर में गुड़, घी और गेहूं की रोटी का चूरमा अथवा मोटा रोट अर्पित करना चाहिए। रात्रि में आम, अमरूद, केला आदि फलों का प्रसाद अर्पित करें।
साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन अति अनिवार्य है।
जो नैवेद्य हनुमान जी को अर्पित किया जाता है उसे साधक को ग्रहण करना चाहिए।
मंत्र जप बोलकर किए जा सकते हैं। हनुमान जी की मूर्ति के समक्ष उनके नेत्रों की ओर देखते हुए मंत्रों के जप करें।
साधना में दो प्रकार की मालाओं का प्रयोग किया जाता है। सात्विक कार्य से संबंधित साधना में रुद्राक्ष माला तथा तामसी एवं पराक्रमी कार्यों के लिए मूंगे की माला।
साधना पूर्ण आस्था, श्रद्धा और सेवा भाव से की जानी चाहिए।
मंगलवार हनुमान जी का दिन है। इस दिन अनुष्ठान संपन्न करना चाहिए। इसके अतिरिक्त शनिवार को भी हनुमान पूजा का विधान है।
हनुमान साधना से ग्रहों का अशुभत्व पूर्ण रूप से शांत हो जाता है। हनुमान जी और सूर्यदेव एक दूसरे के स्वरूप हैं, इनकी परस्पर मैत्री अति प्रबल मानी गई है। इसलिए हनुमान साधना करने वाले साधकों में सूर्य तत्व अर्थात आत्मविश्वास, ओज, तेजस्विता आदि विशेष रूप से आ जाते हैं। यह तेज ही साधकों को सामान्य व्यक्तियों से अलग करता है।
हनुमान जी की साधना में जो ध्यान किया जाता है उसका विशेष महत्व है। हनुमान जी के जिस विग्रह स्वरूप का ध्यान करें वैसी ही मूर्ति अपने मानस में स्थिर करें और इस तरह का अभ्यास करें कि नेत्र बंद कर लेने पर भी वही स्वरूप नजर आता रहे।
श्री हनुमान ध्यान
उद्यन्मार्तण्ड कोटि प्रकटरूचियुतं चारूवीरासनस्थं।
मौंजीयज्ञोपवीतारूण रूचिर शिखा शोभितं कुंडलांकम्‌
भक्तानामिष्टदं तं प्रणतमुनिजनं वेदनाद प्रमोदं।
ध्यायेद्नित्यं विधेयं प्लवगकुलपति गोष्पदी भूतवारिम॥
उदय होते हुए करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी, मनोरम, वीर आसन में स्थित मुंज की मेखला और यज्ञोपवीत धारण किए हुए कुंडली से शोभित मुनियों द्वारा वंदित, वेद नाद से प्रहर्षित वानरकुल स्वामी, समुद्र को एक पैर में लांघने वाले देवता स्वरूप, भक्तों को अभीष्ट फल देने वाले श्री हनुमान मेरी रक्षा करें।
हनुमान साधना में अलग कार्यों की पूर्ति हेतु अलग-अलग मंत्र सामग्रियों एवं जप अनुष्ठानों का विधान है। हनुमान साधना में षोडशोपचार पूजा का विधान भी है। इस पूजा में कुएं का शुद्ध जल, दूध, दही, घी मधु और चीनी का पंचामृत, तिल के तेल में मिला सिंदूर, रक्त चंदन, लाल पुष्प, जनेउ, सुपारी, गुड़, नारियल का गोला, पांच बत्तियों का दीपक और अष्टगंध आवश्यक हैं।
हनुमान साधना में हनुमान का चित्र और अनुष्ठान से संबंधित यंत्र के अतिरिक्त केवल राम सीता का चित्र अथवा मूर्ति रख सकते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई चित्र या मूर्ति रखना वर्जित है।
हनुमान साधना के दिन प्रातः साधक स्नान कर शुद्ध लाल वस्त्र धारण कर उत्तर दिशा की ओर मुंह कर बैठें तथा अपने सामने हनुमान जी की मूर्ति या चित्र दक्षिणाभिमुख रखें। साधक को संकल्प लेकर अनुष्ठान प्रारंभ करना चाहिए।
हनुमन्मंत्र चमत्कारानुष्ठान :
हनुमान साधना से संबंधित अनेक मंत्र प्रचलित हैं। आदि शंकराचार्य ने हनुमन्मंत्र चमत्कारानुष्ठान पद्धति' की रचना की। इस ग्रंथ में हनुमान साधना से संबंधित महत्वपूर्ण मंत्र दिए गए हैं। साधक अपनी बाधाओं के अनुसार इन मंत्रों का जप कर अनुष्ठान कर सकता है।
यहां कुछ अति चमत्कारी मंत्र प्रस्तुत किए जा रहे हैं जिनके शुक्ल पक्ष के एक मंगलवार से अगले मंगलवार तक ग्यारह हजार जप करना चाहिए। अनुष्ठान आरंभ करने से पहले हनुमान की पूजा करनी चाहिए। इस अनुष्ठान के लिए मंत्र सिद्ध और प्राण प्रतिष्ठित हनुमान गुटिका लाल कपड़े में बांधकर काले डोरे से अपने गले में धारण कर हनुमान चित्र/विग्रह के आगे अनुष्ठान करें :
मंत्र :
ओमक्कनमो हनुमते रुद्रावताराय विश्वरूपाय अमित-विक्रमाय प्रकटपराक्रमाय महाबलाय सूर्य- कोटिसमप्रभाय रामदूताय स्वाहा॥
ओमक्कनमो हनुमते रुद्रावताराय सर्वशत्रुसंहारणाय सर्वरोगहराय सर्ववशीकरणाय रामदूताय स्वाहा॥
ओमक्कनमो हनुमते रुद्रावताराय भक्तजनमनः कल्पना-कल्पद्रुमाय दुष्टमनोरथस्तम्भनाय प्रभंजन- प्राप्रियाय महाबलपराक्रमाय महाविपत्तिनिवारणाय पुत्रपौत्रधन-धान्यादि विविध सम्पत्प्रदाय राम दूताय स्वाहा॥
ओमक्कनमो हनुमते रुद्रावतराय वज्रदेहाय वज्रनखाय वज्रसुखाय वज्ररोम्णे वज्रनेत्राय वज्रदन्ताय वज्रकराय वज्रभक्ताय रामदूताय स्वाहा॥
ओमक्कनमो हनुमते रुद्रावताराय परयंत्रमंत्र - तंत्रत्राटकनाशकाय सर्वजवरच्छेकाय सर्वव्याधिनिकृन्तकाय सर्वभयप्रशमनाय सर्वदुष्टमुखस्तम्भनाय सर्व कार्यसिद्धि प्रदाय रामदूताय स्वाहा॥
ओमक्कनमो हनुमते रुद्रावताराय देवदानवयक्षराक्षस - भूत - प्रेत - पिशाच - डाकिनी - दुष्टग्र बंधनाय रामदूताय स्वाहा॥
ओम नमो हनुमते रूद्रावताराय पंचवदनाय पश्चिममुखे गरूडाय सकलविन निवारणाय रामदूताय स्वाहा॥ 

राम

सोमवार, 23 अगस्त 2010

प्राण

प्राण शरीर के भीतर की जीवनाधार वायु, श्वास।
  • राम  के वियोग में महाराज दशरथ[ अयोध्या के राजा दशरथ रघुवंश के थे।श्री राम प्रभु के पिता होने का गोरव सूर्यवंशी महाराज दसरथ जी को प्राप्त हुआ है!दसरथ जी ने अपने चरित्र मे आदर्श महाराजा ,पुत्रोको प्रेम करने वाला पिता,और अपने वचनों की प्रति पूर्ण समर्पित थे!और अनुचित होते ही भी अपने वचनों पालन किया ! जिससे यह सिख मिलती हे की बिना सोचे किसी भी प्रकार का वचन नही देना चाहीऐ यह सर्वथा अनुचित है !] ने प्राण त्याग दिये।प्राण से तात्पर्य है वह जीवनी शक्ति, जिसके कारण किसी जन्तु अथवा वनस्पति को जीवित कहा जा सकता है। जो साँस लेता हो, जिसमें आन्तरिक वृद्धि होती हो, चयापचय क्रिया होती हो, जो प्रजनन द्वारा अपनी संतति को बढ़ा सके उसे प्राणवान माना जाता है और प्राणी कहा जाता है। प्राण शक्ति का नाश होने से जीव मृत हो जाता है।
अयोध्या के राजा दशरथ रघुवंश के थे।श्री राम प्रभु के पिता होने का गोरव सूर्यवंशी महाराज दसरथ जी को प्राप्त हुआ है!दसरथ जी ने अपने चरित्र मे आदर्श महाराजा ,पुत्रोको प्रेम करने वाला पिता,और अपने वचनों की प्रति पूर्ण समर्पित थे!और अनुचित होते ही भी अपने वचनों पालन किया ! जिससे यह सिख मिलती हे की बिना सोचे किसी भी प्रकार का वचन नही देना चाहीऐ यह सर्वथा अनुचित है !

श्री भगवानुवाच

भगवान श्री कृष्ण  गीता के पहले अद्याये में कुछ  नही बोलते दुसरे अध्याय के 11 श्लोक से वह आपना मुह खोलते हेँ |  फिर बोलते ही जाते हेँ          ( सांख्ययोग का विषय ) अध्याय दो 

श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥
भावार्थ :  श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पंडितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते॥11॥
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥
भावार्थ :   न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे॥12॥
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥
भावार्थ :  जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।13॥
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
भावार्थ :  हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर॥14॥
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
भावार्थ :  क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है॥15॥
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥
भावार्थ :  असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥16॥
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌ ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
भावार्थ :  नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है॥17॥
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥
भावार्थ :   इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर॥18॥
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌ ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥
भावार्थ :   जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है॥19॥
न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
भावार्थ :   यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥20॥
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌ ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌ ॥
भावार्थ :   हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?॥21॥
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
भावार्थ :   जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है॥22॥
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
भावार्थ :   इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता॥23॥
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
भावार्थ :   क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है॥24॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥॥
भावार्थ :   यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे शोक करना उचित नहीं है॥25॥
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌ ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥
भावार्थ :   किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है॥26॥
जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
भावार्थ :   क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है॥27॥
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥
भावार्थ :   हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?॥28॥
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌ ॥
भावार्थ :   कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता॥29॥
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
भावार्थ :   हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है॥30॥ 
( क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण )
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
भावार्थ :  तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥31॥
यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌ ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ॥
भावार्थ :   हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं॥32॥
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥
भावार्थ :  किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ॥33॥
अकीर्तिं चापि भूतानि
कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌ ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-
र्मरणादतिरिच्यते ॥
भावार्थ :  तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है॥34॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ ॥
भावार्थ :  और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे॥35॥
अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌ ॥
भावार्थ :  तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?॥36॥
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌ ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥
भावार्थ :  या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा॥37॥
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
भावार्थ :   जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥38॥ 

( कर्मयोग का विषय )
एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥
भावार्थ :  हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के (अध्याय ३/३

श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥
भावार्थ :  श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम 'ज्ञान योग' है, इसी को 'संन्यास', 'सांख्ययोग' आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम 'निष्काम कर्मयोग' है, इसी को 'समत्वयोग', 'बुद्धियोग', 'कर्मयोग', 'तदर्थकर्म', 'मदर्थकर्म', 'मत्कर्म' आदि नामों से कहा गया है।) होती है॥3॥)
 विषय में सुन- जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥39॥ 
यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌ ॥
भावार्थ :   इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥40॥
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥
भावार्थ :  हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं॥41॥
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌ ।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
भावार्थ :  हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात्‌ दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती॥42-44॥
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ॥
भावार्थ :  हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो॥45॥
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥
भावार्थ :  सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है॥46॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
भावार्थ :  तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥47॥
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
भावार्थ :   हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है।) ही योग कहलाता है॥48॥
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥
भावार्थ :   इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात्‌ बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं॥49॥
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌ ॥
भावार्थ :   समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबंध से छूटने का उपाय है॥50॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌ ॥
भावार्थ :   क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं॥51॥
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥
भावार्थ :   जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भलीभाँति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा॥52॥
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥
भावार्थ :   भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा॥53॥
( स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा )

श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌ ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
भावार्थ :   श्री भगवान्‌ बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है॥55॥
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥
भावार्थ :  दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है॥56॥
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
भावार्थ :  जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है॥57॥
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
भावार्थ :  और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)॥58॥
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥
भावार्थ :  इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है॥59॥
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥
भावार्थ :  हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात्‌ हर लेती हैं॥60॥
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
भावार्थ :   इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥61॥
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
भावार्थ :   विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है॥62॥
क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
भावार्थ :   क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥63॥
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥
भावार्थ :   परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥64॥
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥
भावार्थ :   अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है॥65॥
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥
भावार्थ :   न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?॥66॥
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥
भावार्थ :   क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥67॥
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
भावार्थ :   इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है॥68॥
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
भावार्थ :   सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है॥69॥
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥
भावार्थ :   जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥70॥
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
भावार्थ :   जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है॥71॥
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥
भावार्थ :   हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है॥72॥