गुरुवार, 13 अगस्त 2009

प्राण पखेरू

उड़ते ही , प्राण पखेरू
उड़ते ही प्राण-पखेरू
देह से गिले शिकवे छोड़ गये
जो देह थी सजती हार -श्रृंगार से
आज उसी को ,एक मुठी रख बना छोड़ गये
रहते प्राणों के
इस देह से बहुत प्यार किया
बहुत कोशिशें कीं
की प्राण इस में बने रहें
होसले भी बहुत बुलंद किए
जो एक झटके में चूर हुए
नाज था जिन पर
उन दोस्तों को भी देखा
बिना इंतजार किए
इस देह को दफनाने चले
दफन होते ही
देह का वजूद घट गया
न वेसा रंक ही रहा,न कोई वेसा रजा रहा
वजूद तो उन का भी नही बचा
जिन की चिताओं पर लगे थे मेले
नाश-वां इस देह से प्यार कर
क्या कभी सुखी रहे?
प्राण छुटें तो ऐसे
कम से कम
दुनिया वाले याद तो करें
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अपना धर्म

--------------------------------------------------------------------------------------------------अपने धर्म में रहो
अपने धर्म के ही कर्म करो
दुसरे का चाहे लाख हो अछा धर्म
अपने में ही जियो -मरो
धर्म ब्रह्मिण का
पड़ना और पड़ना
क्षत्रिय का
सब की रक्षा और इजत बचाना
धर्म वेश्य का
सचा-सुचा व्योपार
शुद्र का धर्म
सेवा कर कमाना
सेवा कर वही कमाते हें
जो भांति -भांति की फेक्ट्रियां लगते हें
इन का बना मॉल बेच कर
वेश्य अपना घर चलते हें
ब्रह्मिण तो पड़ते और पड़ते हें
इस देह में ब्राह्मण मुख को कहा
हाथ को क्षत्रिय पेटू-पेट को वेश्य
शुद्र कहा टांगों को
एक को भी निकाल दो
या एक का भी कर्म बदल डालो
देह का कबाडा हो जाए गा
पेटू वेश्य कर ता व्योपार सचा इस देह में
जो जाता पेट में
उसे सभी अंगों को पहुंचता हे
चोट लगती शुद्र रूपी पांव को जब
रक्षा करने को
क्षत्रिय हाथ आगे आता हे
ब्राह्मण मुख हो दुखी
इसकी चोट से
क्या आंसू बहा कर नही दिखता हे
बदल डालो उस समाज को
जो इस देह जेसा ना हो

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