गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

मन में जब कोई तरंग

मन में जब कोई तरंग उठती है तो मनुष्य को इसका अहसास नहीं रहता कि वह क्या कर रहा है और उसे क्या करना है? विचार

की ऐसी तरंग का प्रभाव विचित्र होता है।

पर, इसके उलट असर एकाग्रता का होता है। एकाग्रता बहुत बड़ी शक्ति है। जिस व्यक्ति में एकाग्रता की शक्ति विकसित हो जाती है, उसकी सारी शक्ति केंद्रित हो जाती है और वह केंद्रित शक्ति विस्फोट करती है। जैसे किसी शिलाखंड को निकालने के लिए बारूद का विस्फोट किया जाता है, वैसे ही शक्ति के आवरण को हटाने के लिए यह विस्फोट किया जाता है।

अतीन्द्रिय ज्ञान की साधना के अनेक उपाय हैं। उनमें दो हैं-इन्द्रिय का संयम और स्थिरीकरण या एकाग्रता। स्थिरीकरण मन का भी होता है और वाणी तथा शरीर का भी। यही एकाग्रता है। जब मन, वाणी और शरीर की चंचलताएं समाप्त होती है, तब बाधाएं दूर हट जाती है। चंचलता सबसे बड़ी बाधा है। हिलते हुए दर्पण में मुंह दिखाई नहीं देता। स्थिर दर्पण में ही मुंह देखा जा सकता है। जब चेतना स्थिर होती है, तब इसमें बहुत चीजें देखी जा सकती हैं। जब चेतना चंचल होती है, तब उसमें कुछ भी दिखाई नहीं देता।

तीसरा उपाय है- निर्विकल्प होना। निर्विकल्प का अर्थ है -विचारों का तांता टूट जाए। एकाग्रता और निर्विकल्पता में बहुत बड़ा अंतर है। एकाग्रता का अर्थ है -किसी एक बिंदु पर टिक जाना। यह भी एक प्रकार की चंचलता तो है ही। हम अहं या ओम् पर स्थिर हो गये, फिर भी चंचलता है। वहां न कोई विकल्प होता है, न शब्द, न चिंतन और मनन।

निर्विकल्प अवस्था में न स्फूर्ति रहती है, न कल्पना रहती है। बाहर का कोई भान नहीं रहता। इसमें केवल अंतर्मुखता, केवल आत्मानुभूति, गहराई में डुबकियां लेना होता है। इस स्थिति में आवरण बहुत जल्दी टूटता है। आवरण को बल मिलता है विकल्पों के द्वारा। विकल्प विकल्प को जन्म देता है। तरंग-तरंग को पैदा करती है। जब विकल्प समाप्त हो जाता है, तब आवरण को पोषण नहीं मिल पाता। वह स्वत: क्षीण हो जाता है। आहार के अभाव में जैसे शरीर क्षीण होता है, वैसे ही पोषण के अभाव में आवरण क्षीण होता जाता है।

जिन लोगों ने एकाग्रता साधी है, निविर्कल्पता और समता साधी है, उन्हें ही अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति हुई है। अतीन्दिय ज्ञान के तीन प्रकार हैं -अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान। इन सबकी प्राप्ति के लिए समता की साधना एक अनिवार्य शर्त है। जब तक राग-द्वेष या प्रियता-अप्रियता के द्वंद्व में आदमी उलझा रहता है, तब तक आवरण को पोषण मिलता रहता है। जब समता सध जाती है, तब आवरण पुष्ट नहीं होता। आवरण की क्षीणता में ही अतीन्दिय चेतना जागती है।

भगवान महावीर, महात्मा बुद्ध, ईसा मसीह, मोहम्मद साहब आदि जितने भी विशिष्ट व्यक्ति हुए हैं और जिन-जिन को विशिष्ट ज्ञान या बोधि की प्राप्ति हुई है, वह साधना के द्वारा ही हुई है। उस विशिष्ट साधना का एक महत्वपूर्ण अंग है समता।

समता की साधना का अर्थ है -इंदिय संयम की साधना। इसके अंतर्गत आहार-संयम की बात स्वत: प्राप्त हो जाती है। आहार का संयम हमारी भीतरी शक्ति को जगाने में सहायक होता है। आहार शरीर पोषण के लिए आवश्यक है, तो आहार संयम ज्ञान के स्त्रोतों को प्रवाहित करने के लिए अनिवार्य है। भोजन से मैल जमता है और वह इतना सघन हो जाता है कि अतीन्द्रिय चेतना के जागरण की बात दूर रह जाती है, इन्द्रिय चेतना भी अस्त-व्यस्त हो जाती है।

मैंने अतीन्द्रिय ज्ञान की साधना के लिए कुछेक साधनों की चर्चा की। बिना साधनों के भी उसकी प्राप्ति होती है, यह बात बतानी है। हमारा शरीर अतीन्द्रिय ज्ञान का स्त्रोत है। कभी-कभी अचानक कोई घटना घटती है और वे स्त्रोत उद्घाटित हो जाते हैं, तब आदमी को अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति का अनुभव होने लग जाता है। साधना और आकस्मिकता- ये दोनों अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति में सहायक होते हैं। साधना की अपनी विशेषता है, क्योंकि उसकी एक निश्चित प्रक्रिया होती है। आकस्मिकता कभी-कभार होती है।

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