रविवार, 21 फ़रवरी 2010

योगगुरु रामदेव के कथन पर संतों का भड़कना सनातन धर्म का

यह http://www.janokti.com/wp-trackback.php?p=523 के लिए Google का संचय है. यह पृष्ठ का एक स्नैपशॉट है जैसा कि यह 10 जन 2010 07:16:02 GMT को दिखाई दिया था. वर्तमान पृष्ठ इस दौरान बदल गया होगा. अधिक जानें




केवल-टेक्स्ट संस्करण

ये खोज शब्द हाइलाइट किए गए हैं: सनातन धर्म देखिये



This option will reset the home page of this site. Restoring any closed widgets or categories.

Reset

Sunday 10th January



*

* “जनोक्ति” का उद्देश्य

* संपर्क सूत्र

* Advertise with us

* RSS feed

*



* Home

* विविध

o कृषिजगत

o खेल-कूद

o राशीफल

o प्रकृति

o पर्यटन

o तकनीक

o अध्यात्म

o दर्शन

o जीवन बीमा

* राजनीति

o देश-दुनिया

o यूपी-बिहार

o राष्ट्रीय

o दिल्ली -एनसीआर

* साहित्य

o कविता

o व्यंग

o गीत-ग़ज़ल

o स्मृति-लेख

o साक्षात्कार

o प्रेरक-कथा

* विवाद

o राजनीतिक विवाद

o साहित्यिक विवाद

o अंतर्राष्ट्रीय विवाद

o राष्ट्रीय विवाद

o विमर्श

* कला-संस्कृति

o इतिहास

o भारतनामा

o पर्व-त्यौहार

* संचार-जगत

o मीडिया-संसार

o सिनेमा-संसार

o ब्लॉग-जगत

* समाज

o मज़हब

o शिक्षा

o स्वास्थ्य

o युवा

o जीवन

* सेक्स और समाज

* रोजी-रोटी

o आर्थिक

o रोजगार

* दस्तावेज़



Home » योगगुरु रामदेव के कथन पर संतों का भड़कना सनातन धर्म का तालिबानीकरण

योगगुरु रामदेव के कथन पर संतों का भड़कना सनातन धर्म का तालिबानीकरण

जयराम "विप्लव"

Tagged with: controversy religion कला-संस्कृति मज़हब विवाद विविध



योग गुरू बाबा रामदेव vivekanand/vedanta/hinduismके शंकराचार्य विषयक अभिकथन पर काशी और हरिद्वार सहित देश भर के साधु संन्यासी एवं दशनामी परंपरा के महनीय अनुयायियों ने जिस प्रकार से प्रतिक्रिया की उससे सनातन धर्म के तालिबानीकरण की गन्ध आने लगी है। शांकर मत धर्म नहीं है यह दर्शन है दर्शन मत वैभिन्य के द्वारा ही विकसित होता है। यह अकेला दर्शन भी नहीं है। सबसे प्राचीन भी नहीं है। भारत के वैचारिक इतिहास में इसका प्रतिरोध पहली बार हुआ हो ऎसा भी नहीं है। यह दर्शन तो बौद्धों एवं जैनों के साथ खण्डन मण्डन पुरस्सर ही विकसित हुआ है। कुमारिल के निर्देश पर मण्डनमिश्र के साथ हुआ शास्त्रार्थ विश्वविश्रुत है। स्वयं जगद्गुरू आदिशंकर सांख्यों को अपने सि के विरूद्ध प्रधान मल्ल कहते हैं। आधुनिक भारत में भी महर्षि दयानन्द तथा महर्षि अरविन्द द्वारा आचार्य शंकर के सिद्धान्तों की प्रखर आलोचना हुई है। किन्तु इन सबके होते हुये भी न तो भगद्पाद् शंकर की अवमानना हुई न इन आलोचको को दबाव में लाने की कॊशिश ही दिखाई देती है। भारतीय परम्परा तो यह मानती है कि धर्म का तत्त्व किसी गहन गुफ़ा में है और श्रेष्ठजन जिस मार्ग पर चलते हैं वही धर्म पथ है। सत् का पथ इकलौता नही है। पुष्पदन्त के शब्दॊ में कहें तो रूचिनां वैचित्र्याद् ऋजु कुटिल नाना पथजुषाम्। रास्ते अनेक हैं , शंकर के पूर्व भी थे, शकर के पश्चात् भी हैं, शंकराचार्य का तो है ही उनके अलावा भी है। यहां तक कि समस्त वेदान्त शंकर का अद्वैत मत ही नहीं है। दर्शन के विद्यार्थी तथा अध्येता के रुप में मै यह मानता हूं कि अद्वैत मत भारतीय दर्शनो में श्रेष्ठतम है किन्तु यह श्रेष्ठता युक्ति तथा तर्क के धरातल पर है । आचरण के धरातल पर यह एकमेव है ऎसी अवधारणा कभी नहीं रही है। जिस प्रकार का शोरशराबा हुआ है वह सनातन धर्म के अज्ञान का परिचायक है। सभी प्रकार के विरोधों के होते हुए भी काशी एवं हरिद्वार में सन्तों की प्रतिक्रिया सनातन धारा को चोट तो पहुंचाती ही है, मध्यकालीन चर्च के व्यवहार तथा तालिबानी कार्य पद्धति की स्मृति करा देती है। चाहे जिस रुप में इसको लिया जाय भारत भूमि में स्वीकृत एवं प्रचलित पुरातन तथा सनातन वाद पथ के अनुकुल नहीं है। आखिर योगदर्शन के प्रतिपादक पतंजलि का अनुयायी ब्रह्मसत्यं जगतमिथ्या के सिद्धान्त के साथ सहमत हो इसके लिये उसे बाध्य करना उचित है क्या? असहमति का प्रकटीकरण अपराध है क्या? असहमति या विरोध का होना स्वाभाविक है उसको दूर करने का प्रयास उचित तथा श्लाघ्य है। किन्तु इसके लिये दर्शन के क्षेत्र में शास्त्रार्थ की स्वीकृत विधि का ही उपयोग होना चाहिये। बल से, दबाव से अथवा प्रभाव से सहमति बनाने की विधि सनातन परम्परा के अनुकुल नहीं है। असहमति को खण्डित करने के लिये शास्त्रार्थ ही शिष्ट मर्यादित विधि है। ध्यान रहे इस का भी प्रयोग दर्शन के ही क्षेत्र में संभव है। शास्त्रार्थ सिद्ध तथ्य होने से ही श्रद्धा उत्पन नहीं होती है वह तो तप के अधीन है यदाचरति श्रेष्ठः तदेवेतरो जनाः । स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनुवर्तते। सनातन धर्म किसी एक मत पर आधारित है। ’एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति”इसका उत्स है। इसीलिये दण्डधारी परिव्राजक शंकर भी अपनी माता के उर्ध्व दैहिक संस्कारों को स्वयं संपन्न करते हैं। शारीरक भाष्यकार यह सन्यासी शरीर का निषेध नहीं करता है अपितु उसकी निःसारता का प्रतिपादन करता है। यह मनसाऽप्यचिन्त्य रचना इन्द्रियानुभविक जगत तो नैसर्गिक है इसलिये लौकिक व्यवहारो का अपलाप कथमपि संभव नहीं है। व्यवहार के स्तर पर यह मिथ्यात्व तर्क एवं अनुभव द्वारा अवबोध्य है इन्द्रियानुभव से नहीं। भौतिक अग्नि की दाहकता अलीक नहीं है, नहि श्रुतिसहस्रेणाप्यग्निर्शीतं कर्तुं शक्यते। बाबा रामदेव ने शंकर के जगत मिथ्यात्व सिद्धान्त से अपनी असहमति जतायी है ब्रह्म सत्यं को स्वीकार किया है। शकर ब्रह्मवादी है मायावादी या मिथात्ववादी नहीं है। शंकर ने भी मिथ्यात्व के सिद्धान्त को उतना महत्त्व नहीं दिया है जितना हरिद्वार से लेकर काशी तक के शांकरमतावलम्बियों ने प्रतिपादित करने की कोशिश की है। आचार्य शंकर तो त्रिविध सत्ता के सिद्धान्त के उपन्यासकार हैं। जिस प्रकार संख्या बल के आधार पर बाबा रामदेव को दबाव में लाया गया है। वह कठोर पान्थिकता की ओर संकेतित कर रहा है।स्वयं शंकर तो धर्म के विषय में सूक्ष्म निर्णय के लिये परिषद् व्यापार की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं। विरोध प्रदर्शन तथा अखबारी बयानबाजी से किसी दर्शन की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने का तरीका सन्तो को शोभा नहीं देता है। सन्तो द्वारा यह कहना कि यदि इस अपराध के लिये बाबा रामदेव ने क्षमा याचना नहीं कि तो उनका सामाजिक बहिष्कार किया जायेगा सन्यास धर्म के विरूद्ध है, सन्यासी तो लोक तथा समाज का परित्याग ही है। यह आश्रम बिना समाज के परित्याग के सुलभ ही नहीं है। वह् तो सभी कर्मॊ तथा संबन्धों से उपर उठ कर लोक संग्रह मात्र के लिये कर्म की अवस्था है। अतः यह धमकी या चेतावनी वेदपथानुरोधी कैसे हो सकती है। हाँ इससे उलट यह सनातन धर्म को सामी पन्थो के समकक्ष अवश्य खडा कर देता है। आद्यशंकराचार्य ने आभी इस लोक को नित्य तथा वस्तुगत रुप में सत् मानने वाले मीमांसकों का गहन गभीर प्रत्याख्यान किया है। लेकिन वे इस प्रत्याख्यान हेतु भी मण्डनमिश्र से शास्त्रार्थ का भिक्षाटन करते हैं। भिक्षाटन अनुरोध है निवेदन है चुनौती नहीं है। ’वादे वादे जायते तत्त्वबोधः’ से किसी का विरोध नहीं है,होना भी नहीं चाहिये। किन्तु असहमति के स्वर संख्या बल पर नहीं दबाये जाने चाहिये। यदि पहले ऎसा हुआ होता तो बौध एवं मीमांसा मत के प्रत्याख्यानपूर्वक आचार्य शंकर का अद्वैत मत प्रतिष्ठित ही नहीं हो पाया होता। विरोधी चिन्तन का खण्डन करने का अधिकार सबको है। पर यह सैद्धान्तिक धरातल ही बना रहे। पुनश्च वेद का प्रामाण्य मानने वाला कोई भी विचार सनातन का विरोधि नही है अपितु सनातन वैचारिकी का ही एक भाग है। उसकी इस प्रकारसे प्रताडना आश्चर्यजनक है। :- रजनीश शुक्ला ,वाराणसी (दर्शनशास्त्र के अध्यापक हैं )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें