बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

सुख-दु:ख की अनुभूति



सुख-दु:ख की अनुभूति मानव जीवन में सुख एवं दु:ख का जोड़ा है। यह मनुष्य की अनुभूति पर निर्भर करता है। राजा बलि का सब कुछ जाने के बाद वह दुखी नहीं हुआ। वह स्थिर चित्त भक्ति को समर्पित रहा। तब प्रभु ने राजा से कहा कि मैं जिस पर कृपा करता हूं उसकी धन-संपत्ति हर लेता हूं, क्योंकि संपत्ति के मद से मनुष्य मतवाला हो जाता है। उसके स्वयं के कल्याण में अहम् बाधक हो जाता है। सुख एक अनुभूति मात्र है जबकि दु:ख मानव जीवन की कसौटी है। कष्टों को सहन करने से पापों का नाश होता है तथा मन निर्मल होता है और मन के निर्मल होने से प्रभु का सामीप्य प्राप्त होता है। जगत में कष्टों का कोई ओर छोर नहीं। उन्हें विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से ग्रंथों में स्पष्ट किया है तथापि दार्शनिकों के मतानुसार कष्टों को उनकी प्रकृति के अनुसार तीन समूहों में विभक्त किया है। सुख की अनुभूति होने पर अत्यधिक प्रसन्न होना तथा दु:ख में विचलित हो जाना शास्त्र सम्मत नहीं है। इसके परिणाम मनुष्य को भोगने पड़ते हैं। सुख में अधिक उत्साहित होने पर देखा गया है कि वह प्रमाद में फंस जाता है। ऐसे लोग अपने कर्म से विचलित हो जाते हैं। दु:ख में विचलित न होने वाले पुरुष साहस एवं लगन के साथ काम करने से सफलीभूत हुए हैं। कष्ट सहकर जो श्रम हमने किया है उसी की परिणाति तो सुख है। गहन कष्ट के पलों में गंभीरतापूर्वक विचार करने पर हम उसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उसी के लिए दु:खी होते हैं जिसके लिए कभी आनंदित हुए थे। मानव जीवन में सुख-दु:ख एक तराजू के समान हैं। कभी एक ऊपर तो दूसरा नीचे। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में ये उद्घोषित किया है कि दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, रामराज काहू नहिं व्यापा। इसका भाव तो यही है कि राम के राज में किसी को कोई दु:ख नहीं था। घटनाएं तो कर्म के अनुसार घटित होती हैं। मानव जीवन के कष्टों को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं। प्रथम श्रेणी है जहां दु:ख सुख के आगे चलता है। भोग की सामग्री जुटाने के लिए अनेक कष्ट झेलने पड़ते हैं। दु:ख की दूसरी श्रेणी है जो हम पर थोपा जाता है। यह अनायास ही हमारे समक्ष आ खड़ा होता है। तीसरी श्रेणी का दु:ख जो इन दोनों के मध्य का है। इसे हम स्वयं आमंत्रित करते हैं। जैसे-मन का ईष्र्या-द्वेष विकार।

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