बुधवार, 3 मार्च 2010

अनुगीता

अनुगीता - अध्याय १


सभायां वसतोस्तस्यां निहात्यारीन्माहात्मनोः।

केशवार्जुनयोः का नु कथा समभवद्द्विज॥१॥

जनमेजय बोले

हे द्विज! शत्रुओं को मारकर उस भवन में बैठे हुए उन महात्माओं कृष्ण और अर्जुन में क्या बात हुई?



वैशंपायन उवाच

कृष्णेन सहितः पार्थः स्वराज्यं प्राप्य केवलम्।

तस्यां सभायां रम्यायां विजहार मुदा युतः॥२॥

वैशंपायन बोले

पार्थ ने अपना राज्य पाकर, उस रम्य भवन में कृष्ण के साथ मुदित मन से विहार किया।



ततः कंचित्सभोद्देशं स्वर्गोद्देशसमं नृप।

यदृच्छया तौ मुदितौ जग्मतुः स्वजनावृतौ॥३॥

हे नृप! तब मुदित मन से विहार करते हुए, स्वजनों से घिरे हुए वे दोनों भवन के एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जो स्वर्ग के समान था।



ततः प्रतीतः कृष्णेन सहितः पाण्डवोऽर्जुनः।

निरीक्ष्य तां सभां रम्यामिदं वचनमब्रवीत्॥४॥

तब कृष्ण के साथ उस सुन्दर भवन को देखकर प्रसन्न पाण्डव, अर्जुन ने यह शब्द कहे।



विदितं ते महाबाहो संग्रामे समुपस्थिते।

माहात्म्यं देवकीमातस्तच्च ते रूपमैश्वरम्॥५॥

हे महाबाहो! हे देवकी के पुत्र! युद्ध के शुरु होने पर आपका जो माहात्म्य मैंने जाना था और जो ऐश्वर्य से परिपूर्ण रूप मैंने देखा था, वो मुझे याद है।



यत्तु तद्भवता प्रोक्तं तदा केशव सौहृदात्।

तत्सर्वं पुरुषव्याघ्र नष्टं मे नष्टचेतसः॥६॥

हे पुरुषव्याघ्र! पर जो उस समय आपके द्वारा सौहार्द से बताया गया था, वह सबकुछ, मुझ नष्टचित्त का नष्ट हो गया है।



मम कौतूहलं त्वस्ति तेष्वर्थेषु पुनः प्रभो।

भवांश्च द्वारकां गन्ता नचिरादिव माधव॥७॥

हे प्रभो! उसको पुनः जानने के लिए मैं उत्सुक हूँ। हे माधव! और आप कुछ देर में ही द्वारका भी लौट जाऐंगे।



एवमुक्तस्ततः कृष्णः फल्गुनं प्रत्यभाषत।

परिष्वज्य महातेजा वचनं वदतां वरः॥८॥

एसा कहे जाने पर महान तेज वाले, बोलने में श्रेष्ठ, कृष्ण ने अर्जुन को गलो लगाकर कहा।



श्रावितस्त्वं मया गुह्यं ज्ञापितश्च सनातनम्।

धर्मं स्वरूपिणं पार्थ सर्वलोकांश्च शाश्वतान्॥९॥

हे पार्थ! मेरे द्वारा तुम्हें रहस्यात्मक बात सुनायी गई है, सनातन तत्त्व के बारे में बताया गया है, धर्म का स्वरूप और सभी शाश्वत लोकों के बारे में बताया गया है।



अबुद्ध्या नाग्रहीर्यस्त्वं तन्मे सुमहदप्रियम्।

न च साद्य पुनर्भूयः स्मृतिर्मे सम्भविष्यति॥१०॥

हे पाण्डव! जो तुमने बुद्धिहीन होकर नहीं सुना, वह मेरे लिए अत्यंत अप्रिय है। और आज दुबारा उसे याद करना मेरे लिए सम्भव नहीं है।



नूनमश्रद्धानोऽसि दुर्मेधा ह्यासि पाण्डव।

न च शक्यं पुनर्वक्तुमशेषेण धनंजय॥११॥

निश्चय ही तुम श्रद्धाहीन हो और मूढ हो। हे धनंजय! मैं दुबारा उसे पूरी तरह से नहीं बता पाऊँगा।



स हि धर्मः सुपर्याप्तो ब्रह्मणः पदवेदने।

न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः॥१२॥

वह ज्ञान ब्रह्म को जानने के लिए पर्याप्त था। उसे पूरी तरह दुबारा बोलना मेरे लिए सम्भव नहीं है।



परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया।

इतिहासं तु वक्ष्यामि तस्मिन्नर्थे पुरातनम्॥१३॥

मेरे द्वारा परब्रह्म के विषय मे बताया गया था और अपनी यौगिक शक्ति दिखाई गई थी। उस विषय में मैं तुम्हें एक पुरातन इतिहास बताऊँगा।



यथा तां बुद्धिमास्थाय गतिमग्र्यां गमिष्यसि।

शृणु धर्मभृतां श्रेष्ठ गदतः सर्वमेव मे॥१४॥

जिससे उसे बुद्धि से जानकर तुम श्रेष्ठ लक्ष्य प्राप्त कर पाओगे। हे धर्म धारण करने वालों में श्रेष्ठ! सब कुछ बताते हुए मुझे सुनो।



आगच्छद्ब्राह्मणः कश्चित्स्वर्गलोकादरिंदम।

ब्रह्मलोकाच्च दुर्धर्षः सोऽस्माभिः पूजितोऽभवत्॥१५॥

हे शत्रुओं के दमन करने वाले! एक समय कोई दुर्धर्ष ब्राह्मण स्वर्गलोक और ब्रह्मलोक से आया था और हमारे द्वारा पूजित किया गया था।



अस्माभिः परिपृष्टश्च यदाह भरतर्षभ।

दिव्येन विधिना पार्थ तच्छृणुष्वाविचारयन्॥१६॥

हे भरतर्षभ! हमारे द्वारा दिव्य विधिपूर्वक पूछे जाने पर उसने जो कहा, पार्थ! उसे निःशंक भाव से सुनो!



ब्राह्मण उवाच

मोक्षधर्मं समाश्रित्य कृष्ण यन्मामपृच्छथाः।

भूतानामनुकम्पार्थं यन्मोहच्छेदनं प्रभो॥१७॥

तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि यथावन्मधुसूदन।

शृणुष्वावहितो भूत्वा गदतो मम माधव॥१८॥

ब्राह्मण बोले

हे कृष्ण! हे प्रभो! प्राणियों पर अनुकम्पा करने के लिए, मोह का छेदन करने वाले मोक्षधर्म के विषय में जो आप मुझे पूछ रहे हो, हे मधुसूदन! वह मैं यथावत् आपको बताऊँगा। हे माधव! एकाग्र होकर मुझे बताते हुए सुनें।



कश्चिद्विप्रस्तपोयुक्तः काश्यपो धर्मवित्तमः।

आससाद द्विजं कंचिद्धर्माणामागतागमम्॥१९॥

कोई काश्यप नाम का तपस्वी विप्र, धर्म का श्रेष्ठ जानकार, किसी धर्म को अच्छी तरह जानने वाले विप्र के पास पहुँचा।



गतागते सुबहुशो ज्ञानविज्ञानपारगम्।

लोकतत्त्वार्थकुशलं ज्ञातारं सुखदुःखयोः॥२०॥

(वह विप्र) संसार चक्र के ज्ञान-विज्ञान को अच्छी तरह जानता था, सभी लोकों के बारे में तथा सुख-दुःख के बारे में भी अच्छी तरह जानता था।



जातीमरणतत्त्वज्ञं कोविदं पुण्यपापयोः।

द्रष्टारमुच्चनीचानां कर्मभिर्देहिनां गतिम्॥२१॥

(वह विप्र) जन्म-मरण के तत्त्व को जानता था तथा पुण्य-पाप के विषय में भी ज्ञान रखता था। वह कर्मानुसार प्राप्त होने वाली प्राणियों की उच्च-नीच गति को भी जानता था।



चरन्तं मुक्तवत्सिद्धं प्रशान्तं संयतेन्द्रियम्।

दीप्यमानं श्रिया ब्राह्म्या क्रममाणं च सर्वशः॥२२॥

(वह विप्र) एक मुक्त के समान आचरण करने वाला था, सिद्ध था, प्रशान्त चित्त वाला था, संयत इंद्रियों वाला था, ब्राह्मिक तेज से दैदीप्यमान वह सभी जगह विहार कर रहा था।



अन्तर्धानगतिज्ञं च श्रुत्वा तत्त्वेन काश्यपः।

तथैवान्तर्हितैः सिद्धैर्यान्तं चक्रधरैः सह॥२३॥

(वह विप्र) अन्तर्धान होना जानता था तथा अन्तर्धान हुए सिद्धों के साथ तथा चक्रधरों के साथ जा रहा था।



संभाषमाणमेकान्ते समासीनं च तैः सह।

यदृच्छया च गच्छन्तमसक्तं पवनं यथा॥२४॥

(वह विप्र) एकान्त में उनके साथ बैठ कर वार्ता करता हुआ, वायु की तरह अनासक्त अपनी इच्छानुसार जहाँ चाहे वहाँ जा रहा था।



तं समासाद्य मेधावी स तदा द्विजसत्तमः।

चरणौ धर्मकामो वै तपस्वी सुसमाहितः।

प्रतिपेदे यथान्यायं भक्त्या परमया युतः॥२५॥

वह मेधावी, श्रेष्ठ, तपस्वी ब्राह्मण उस के पास जाकर, धर्म का ज्ञान पाने की इच्छा से सुसमाहित होकर विधिपूर्वक और परम भक्तिपूर्वक उसके चरणों पर गिर पड़ा।



विस्मितश्चाद्भुतं दृष्ट्वा काश्यपस्तं द्विजोत्तमम्।

परिचारेण महता गुरुं वैद्यमतोषयत्॥२६॥

और उस अद्भुत और श्रेष्ठ विप्र को देखकर काश्यप विस्मित हुए और अपनी महान सेवा से उस विज्ञ गुरु को प्रसन्न किया।



प्रीतात्मा चोपपन्नश्च श्रुतचारित्रसंयुतः।

भावेन तोषयच्चैनं गुरुवृत्त्या परंतपः॥२७॥

परन्तप (काश्यप) ने प्रसन्न भाव से उसके पास जाकर, श्रुति सम्मत व्यवहार से सम्पन्न होकर, गुरू के लिए उपयुक्त व्यवहार से उन्हें प्रसन्न किया।



तस्मै तुष्टः स शिष्याय प्रसन्नोऽथाब्रवीद्गुरुः।

सिद्धिं परामभिप्रेक्ष्य शृणु तन्मे जनार्दन॥२८॥

गुरू ने शिष्य से प्रसन्न होकर परम सिद्धि से सम्बन्धित वचन कहे। हे जनार्दन! वह मुझसे सुनो।



सिद्ध उवाच

विविधैः कर्मभिस्तात पुण्ययोगैश्च केवलैः।

गच्छन्तीह गतिं मर्त्या देवलोकेऽपि च स्थितिम्॥२९॥

सिद्ध बोले

हे तात! विविध प्रकार के कर्मों से और केवल पुण्य कर्मों के योग से मर्त्य प्राणि या तो यहाँ (पृथिवी पर) या फिर देवलोक में जाते हैं।



न क्वचित्सुखमत्यन्तं न क्वचिच्छाश्वती स्थितिः।

स्थानाच्च महतो भ्रंशो दुःखलब्धात्पुनः पुनः॥३०॥

कहीं पर भी आत्यान्तिक सुख नहीं है। और न ही कहीं पर शाश्वत स्थिति है। बार बार अत्यन्त कठिनाई से प्राप्त स्थान से च्युति होती है।



अशुभा गतयः प्राप्ताः कष्टा मे पापसेवनात्।

काममन्युपरीतेन तृष्णया मोहितेन च॥३१॥

मेरे द्वारा काम और क्रोध से अभिभूत होकर, तथा तृष्णा से मोहित होकर, पाप का सेवन करने के कारण अशुभ योनियाँ भोगीं गईं हैं



पुनः पुनश्च मरणं जन्म चैव पुनः पुनः।

आहारा विविधा भुक्ताः पीता नानाविधाः स्तनाः॥३२॥

(मेरे द्वारा) बार बार जन्म (भोगा गया है) और बार बार मृत्यु (भोगी गई है)। विविध प्रकार के आहार भोगे गये हैं तथा नाना प्रकार के स्तनों से दुग्धपान किया गया है।



मातरो विविधा दृष्टाः पितरश्च पृथग्विधाः।

सुखानि च विचित्राणि दुःखानि च मयानघ॥३३॥

हे अनघ! मेरे द्वारा विविध प्रकार की माताऐं, विमिन्न पिता, विचित्र सुख और दुःख देखे गए हैं।



प्रियैर्विवासो बहुशः संवासश्चाप्रियैः सह।

धननाशश्च संप्राप्तो लब्ध्वा दुःखेन तद्धनम्॥३४॥

बहुत बार प्रियजनों से दूर रहना और अप्रियों के साथ रहना (भोगा गया है)। कठिनाई से प्राप्त धन को पाकर उसका नाश होते हुए भी देखा है।



अवमानाः सुकष्टाश्च परतः स्वजनात्तथा।

शारीरा मानसाश्चापि वेदना भृशदारुणाः॥३५॥

अपमान तथा अनेक कष्ट, दूसरों से प्राप्त तथा अपनों से प्राप्त (किये गए हैं)। अत्यंत दारुण शारीरिक तथा मानसिक कष्ट भी भोगे गए हैं।



प्राप्ता विमाननाश्चोग्रा वधबन्धाश्च दारुणाः।

पतनं निरये चैव यातनाश्च यमक्षये॥३६॥

(मेरे द्वारा) उग्र अपमान भोगे गए हैं, (युद्ध में) दारुण वध और बन्धन भोगे गए हैं। नरक में गिरकर यमालय में यातनाऐं भोगीं गईं हैं।



जरा रोगाश्च सततं वासनानि च भूरिशः।

लोकेऽस्मिन्ननुभूतानि द्वंद्वजानि भृशं मया॥३७॥

इस लोक में सतत वृद्धावस्था, रोग तथा द्वन्द्वों से जनित अनेकों अनेक वासनाऐं मेरे द्वारा अनुभूत की गईं हैं।



ततः कदाचिन्निर्वेदान्निराकाराश्रितेन च।

लोकतन्त्रं परित्यक्तं दुःखार्तेन भृशं मया॥३८॥

लोकेऽस्मिन्ननुभूयाहमिमं मार्गमनुष्ठितः।

ततः सिद्धिरियं प्राप्ता प्रसादादात्मनो मया॥३९॥

तब एक समय दुःख से अत्यन्त पीड़ित मेरे द्वारा निराकार ब्रह्म का आश्रय लेकर निर्वेद-पूर्वक यह लोक-व्यवहार त्याग दिया गया। इस लोक में अनुभव करके मैंने इस मार्ग का अनुष्टान किया, तब आत्मा के प्रसाद के द्वारा मेरे द्वारा यह सिद्धि प्राप्त की गई।



नाहं पुनरिहागन्ता लोकानालोकयाम्यहम्।

आसिद्धेराप्रजासर्गादात्मनो मे गतीः शुभाः॥४०॥

मैं यहाँ पुनः नहीं आऊँगा। मैं लोकों को देख रहा हूँ। प्रजा की उत्पत्ति से लेकर सिद्धि प्राप्त करने तक के अपने शुभ मार्गों को देख रहा है।



उपलब्धा द्विजश्रेष्ठ तथेयं सिद्धिरुत्तमा।

इतः परं गमिष्यामि ततः परतरं पुनः॥४१॥

ब्रह्मणः पदमव्यग्रं मा तेऽभूदत्र संशयः।

नाहं पुनरिहागन्ता मर्त्यलोकं परंतप॥४२॥

हे द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार मेरे द्वारा यह उत्तम सिद्धि प्राप्त की गई है। यहाँ से मैं उत्तम लोक में जाऊँगा, उसके बाद उससे उत्तम और उसके बाद ब्रह्म के अव्यग्र पद को प्राप्त करूँगा। इसमें तुम्हें संशय नहीं होना चाहिए। हे परंतप! मैं यहाँ मर्त्यलोक में पुनः नहीं आऊँगा।



प्रीतोऽस्मि ते महाप्राज्ञ ब्रूहि किं करवाणि ते।

यदीप्सुरुपपन्नस्त्वं तस्य कालोऽयमागतः॥४३॥

हे महाप्राज्ञ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। बताओ तुम्हारे लिए क्या करूँ।



अभिजाने च तदहं यदर्थं मां त्वमागतः।

अचिरात्तु गमिष्यामि येनाहं त्वामचूचुदम्॥४४॥

जिस वस्तु की इच्छा करते हुए तुम यहाँ आए हो, उसका समय आ गया है। मैं वह कारण जानता हूँ जिसके लिए तुम यहाँ आए हो। शीघ्र ही मैं यहाँ से चला जाऊँगा अतः मैंने तुम्हें जल्दी करने को कहा है।



भृशं प्रीतोऽस्मि भवतश्चारित्रेण विचक्षण।

परिपृच्छ यावद्भवते भाषेयं यत्तवेप्सितम्॥४५॥

हे विचक्षण! मैं तुम्हारे आचारण से अत्यंत प्रसन्न हूँ। पूछो, ताकि मैं तुम्हें वह बता सकूँ जो तुम्हारी इच्छा है।



बहु मन्ये च ते बुद्धिं भृशं संपूजयामि च।

येनाहं भवता बुद्धो मेधावी ह्यसि काश्यप॥४६॥

हे काश्यप! मैं तुम्हारी बुद्धि का सम्मान करता हूँ क्योंकि उसके द्वारा तुमने मुझे (अन्तर्धान होते हुए भी) पहचान लिया। तुम निश्चय ही मेधावी हो।



॥इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीता पर्वणि प्रथमोऽध्यायः॥

अनुगीता - अध्याय २


वासुदेव उवाच

ततस्तस्योपसंगृह्य पादौ प्रश्नान्सुदुर्वचान्।

पप्रच्छ तांश्च सर्वान्स प्राह धर्मभृतां वरः॥१॥

वासुदेव बोले

तब उसके चरणों को पकड़कर काश्यप ने अत्यंत कठिन प्रश्न पूछे। और उस धार्मिकों में श्रेष्ठ ने उन सभी का उत्तर दिया।



काश्यप उवाच

कथं शरीरं च्यवते कथं चैवोपपद्यते।

कथं कष्टाच्च संसारात्संसरन्परिमुच्यते॥२॥

काश्यप बोले

शरीर कैसे नष्ट होता है तथा कैसे उत्पन्न होता है? और इस संसार में भ्रमण करते हुए किस प्रकार कष्टों से मुक्त होता है?



आत्मा च प्रकृतिं मुक्त्वा तच्छरीरं विमुञ्चति।

शरीरतश्च निर्मुक्तः कथमन्यत्प्रपद्यते॥३॥

आत्मा किस प्रकार प्रकृति को त्यागकर उस शरीर से मुक्त होती है? और शरीर से निकलकर कैसे दूसरे शरीर को प्राप्त करती है?



कथं शुभाशुभे चायं कर्मणी स्वकृते नरः।

उपभुङ्क्ते क्व वा कर्म विदेहस्योपतिष्ठति॥४॥

किस प्रकार मनुष्य अपने द्वारा किये शुभ और अशुभ कर्मों को भोगता है? और शरीर छोड़ने के पश्चात् मनुष्य के कर्म कहाँ ठहरते हैं?



ब्राह्मण उवाच

एवं संचोदितः सिद्धः प्रश्नांस्तान्प्रत्यभाषत।

आनुपूर्व्येण वार्ष्णेय तन्मे निगदतः शृणु॥५॥

हे वार्ष्णेय! इस प्रकार पूछने पर उस सिद्ध ने यथाक्रम उन प्रश्नों का उत्तर दिया। वह बताते हुए मुझे सुनो।



सिद्ध उवाच

आयुःकीर्तिकराणीह यानि कर्माणि सेवते।

शरीरग्रहणे यस्मिंस्तेषु क्षीणेषु सर्वशः॥६॥

आयुःक्षयपरीतात्मा विपरीतानि सेवते।

बुद्धिर्व्यावर्तते चास्य विनाशे प्रत्युपस्थिते॥७॥

सिद्ध बोले

शरीर को ग्रहण करने पर मनुष्य आयु और यश प्रदान कराने वाले जिन कर्मों को भोगता है, उन कर्मों के सर्वथा क्षीण हो जाने पर, आयु-क्षय के समीप आने पर वह विपरीत प्रकार के कर्मों को भोगता है। विनाश के उपस्थित होने पर उसकी बुद्धि भी विपरीत दिशा में मुड़ जाती है।



सत्त्वं बलं च कालं चाप्यविदित्वात्मनस्तथा।

अतिवेलमुपाश्नाति तैर्विरुद्धान्यनात्मवान्॥८॥

तथा प्रमादपूर्वक अपने सत्त्व, बल तथा काल को बिना जाने उनसे विरुद्ध आत्यधिक भोगों को भोगता है।



यदायमतिकष्टानि सर्वाण्युपनिषेवते।

अत्यर्थमपि वा भुङ्क्ते न वा भुङ्क्ते कदाचन॥९॥

जब मनुष्य सभी अतिकष्टदायक कर्म करता है या फिर अत्यधिक भोजन करता है या फिर कभी भी भोजन नहीं करता है;



दुष्टान्नामिषपानं च यदन्योन्यविरोधि च।

गुरु चाप्यमितं भुङ्क्ते नातिजीर्णेऽपि वा पुनः॥१०॥

जब यह दुष्ट अन्न या आमिष भोजन या मदिरा का सेवन करता है या ऐसे पदार्थों का सेवन करता है जो एक-दूसरे के विरोधि हैं या अत्याधिक भारी भोजन करता है या पिछले भोजन को बिना पचाये भोजन करता है;



व्यायाममतिमात्रं वा व्यवायं चोपसेवते।

सततं कर्मलोभाद्वा प्राप्तं वेगविधारणम्॥११॥

या जब अत्यधिक व्यायाम करता है या अत्यधिक काम का सेवन करता है या शरीर के मलत्याग की क्रियाओं को रोकता है;



रसातियुक्तमन्नं वा दिवास्वप्नं निषेवते।

अपक्वानागते काले स्वयं दोषान्प्रकोपयन्॥१२॥

या अत्यधिक रस से युक्त भोजन करता है या दिन में स्वप्न देखता है या बिना पके हुए भोजन का सेवन करता है, वह समय आने पर अपने शरीर के दोषों को (वात, पित्त और कफ) प्रकुपति कर देता है



स्वदोषकोपनाद्रोगं लभते मरणान्तिकम्।

अथ चोद्बन्धनादीनि परीतानि व्यवस्यति॥१३॥

आपने शरीर के दोषों के कोप से मृत्यु प्राप्त कराने वाले रोगों से ग्रसित हो जाता है अथवा अपने को फाँसी लगाने जैसे कार्यों में व्यवसित हो जाता है।



तस्य तैः कारणैर्जन्तोः शरीराच्च्यवते यथा।

जीवितं प्रोच्यमानं तद्यथावदुपधारय॥१४॥

इन कारणों से जन्तु के शरीर से जिस प्रकार जीवन का अलगाव होता है, उसे मेरे द्वारा बताते हुए यथावत समझो।



ऊष्मा प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः।

शरीरमनुपर्येति सर्वान्प्राणान्रुणद्धि वै॥१५॥

तीव्र वायु के उकसाने पर कुपित ऊष्मा पूरे शरीर को व्याप्त करती है और सभी प्राणों को रोक देती है।



अत्यर्थं बलवानूष्मा शरीरे परिकोपितः।

भिनत्ति जीवस्थानानि तानि मर्माणि विद्धि च॥१६॥

शरीर में अत्याधिक कुपित ऊष्मा जीवस्थानों को भेद देती है। उन स्थानों को मर्म स्थान जानो।



ततः सवेदनः सद्यो जीवः प्रच्यवते क्षरात्।

शरीरं त्यजते जन्तुश्छिद्यमानेषु मर्मसु॥१७॥

तब कष्टपूर्वक जीवात्मा इस क्षर शरीर से अलग हो जाता है। मर्म स्थानों के छेदन होने पर जन्तु अपना शरीर त्याग देता है।

1 टिप्पणी:

  1. बहुत अच्छा । बहुत सुंदर प्रयास है। जारी रखिये ।

    आपका लेख अच्छा लगा।

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