बुधवार, 17 मार्च 2010

नयां दो दिन पुराना सो दिन

इस धरती पर दो ही परम्परा प्रचलन में रही हैं- ब्राह्मण और श्रमण। यह कहना कि ब्राह्मण परम्परा सर्वाधिक प्राचीन है तो बात अधूरी होगी और यह भी सही नहीं कि श्रमण पहले हुए। बस इतना समझ लें कि इन्हीं से ईश्वरवादी और अनिश्वरवादी धर्मों की उत्पत्ति हुई है।वास्तव में ब्रह्मा जिनको सृष्टि का निर्माता कहा जाता है .|वेद उन्ही की कस्टडी में रहे ,



चाहे हिंदू, पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम हो या फिर चर्वाक, जैन, शिंतो, कन्फ्यु‍शियस या बौद्ध हो, आज धरती पर जितने भी धर्म हैं, उन सभी का आधार यही प्राचीन परम्परा रही है। इसी परम्परा ने वेद लिखे और इसी से जिनवाद की शुरुआत हुई। यही परम्परा आगे चलकर आज हिंदू, जैन और बौद्ध धर्म कहलाती है।जैन-और बुध कोई धर्म धर्म नही थे यदि निष्पक्ष भाव से विचार किया जावे तो यह साबित हो जाता है की जैनियों के निर्माण करता भी वही ब्रह्मा जी ही रहे | हजारों वर्षों के इस सफर में इस परम्परा ने बहुत कुछ खोया और इसमें बहुत कुछ बदला गया। आज जिस रूप में यह परम्परा है यह बहुत ही चिंतनीय विषय होगा, उनके लिए जो इस परम्परा के जानकार हैं।

अरिष्टनेमि और कृष्ण तक तो यह परम्परा इस तरह साथ-साथ चली कि इनके फर्क को समझना आमजन के लिए कठिन ही था लेकिन बस यहीं से धर्म के व्य‍वस्थीकरण की शुरुआत हुई तो फिर सब कुछ अलग-अलग होता गया।जिनमे प्रमुख हिन्दू,मुस्लिम,सिख ,इसाई,ही सनातनी धर्म नजर आते हैं ,शेष सभी धर्मों को परिवर्तित धर्म कहा जा सकता है ,जिन को लेकर धर्म परिवर्तन की बहस होती है वही लोग धर्म परिवर्तन कर मिशन,समाज आदि आज भी बना रहे हैं

ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को ही मोक्ष का आधार मानता हो और वेद वाक्य को ही ब्रह्म वाक्य मानता हो। ब्राह्मणों अनुसार ब्रह्म, और ब्रह्मांड को जानना आवश्यक है तभी ब्रह्मलीन होने का मार्ग खुलता है। श्रमण वह जो श्रम द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को मानता हो और जिसके लिए व्यक्ति के जीवन में ईश्वर की नहीं श्रम की आवश्यकता है। श्रमण परम्परा तथा संप्रदायों का उल्लेख प्राचीन बौद्ध तथा जैन धर्मग्रंथों में मिलता है तथा ब्राह्मण परम्परा का उल्लेख वेद, उपनिषद और स्मृतियों में मिलता है।

आज ब्राह्मण और श्रमण शब्द के अर्थ बदल गए हैं। यह जातिसूचक शब्द से ज्यादा कुछ नहीं। उक्त शब्दों को नहीं समझने के कारण अब इनकी गरिमा नहीं रही। दरअसल यह उन ऋषि-मुनियों की परम्परा या मार्ग का नाम था जिस पर चलकर सभी धर्म और जाति के लोगों ने मोक्ष को पाया। यह ऐसा ही है कि हम ऋषि और मुनि नाम की कोई जाति निर्मित कर लें और फिर उक्त शब्दों की गरिमा को भी खत्म कर दें।

यहाँ यह कहना भी जरूरी है कि उक्त दोनों परम्परा को जितना नुकसान इस परम्परा को मानने वालों से हुआ उतना ही नुकसान इस परम्परा को तोड़-मरोड़कर एक नई परम्परा को गढ़ने वालों से भी हुआ। इस सबके बीच कुछ लोग थे जिन्होंने उक्त परम्परा को उसके मूल रूप में बचाए रखा। अतः आज पुराने को मान ने की आवश्यकता है ,ना की नये की |कहावत  भी  तो  है नयां दो दिन पुराना सो दिन |

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