शनिवार, 26 दिसंबर 2009

ऋषि ऐसे नहीं होते

महाकाव्य का रति पर्व में 'पत्नी की गोद में सिर रखकर लेटे थे ऋषि जरत्कारू'  की कथा के संदर्भ में मैं कुछ विचार आपके सम्मुख रखना चाहता हूं। असल में, महाभारत के केवल दस हजार श्लोक ही सत्य हैं, जो कि व्यास मुनि और उनके शिष्य जैमिनि ने मिलकर लिखे है। अब जो प्रचलित महाभारत है, उसमें एक लाख 10 हजार श्लोक और मिलते हैं। ये अतिरिक्त श्लोक प्रक्षिप्त हैं और इस कारण असत्य समझे जा सकते हैं। ऐसे असत्य श्लोकों में ऋषिमुनियों, तपस्वियों का काल्पनिक रूप प्रस्तुत किया गया है। बल्कि कह सकते हैं कि ऐसी असत्य कथाओं द्वारा उनका घोर निरादर किया गया है।

ऋषि पद की महत्ता समझने के लिए यह जानना अनिवार्य है कि वेदाध्ययन, यज्ञ, ईश्वर के अनादि नाम का जाप और अष्टांग योग-विद्या के कठोर अभ्यास से जब साधक अपनी पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों और मन इन सभी का संयम करता है और अपने अंदर ज्योति स्वरूप स्वयं प्रकाशक ईश्वर का दर्शन करते हुए वेद मंत्रों का अपने अंदर दर्शन करता है, तब वह ऋषि कहलाने योग्य होता है।
इस संबंध में अथर्व वेद के मंत्र 4/30/3 में ईश्वर के वचन हैं: अहम् स्वयम् एवं इदम् वदामि। अर्थात मैं स्वयं यह कहता हूं। तं ब्रह्मांड तम् ऋषिम् तं समेधाम्। अर्थात् ईश्वर कहता है मैं उसे सुमेधा देता हूं, ब्राह्मण बनाता हूं और ऋषि का पद देता हूं। परंतु दुख की बात है कि आज लोग किसी को भी ऋषि घोषित कर देते हैं। विडंबना तो यह भी है कि कई स्वयंभू ऋषि उत्पन्न होने लगे हैं, जो वेदों का तनिक भी ज्ञान नहीं रखते। जरत्कारू ऋषि की भी कथा कई वैदिक प्रमाणों के अभाव में असत्य कही जा सकती है। वस्तुत: ऋषि जरत्कारू की कथा महाभारत के आदि पर्व में आती है। कथा में कहा कि जरत्कारू ऋषि ने एक बार अपने पितरों को एक गड्ढे में नीचे मुंह किए हुए लटके देखा। ऋषि के पूछने पर पितरों ने कहा कि वह व्रत निष्ठ ऋषि है। संतान के लोप होने के कारण पुण्य लोक से भ्रष्ट हो गए हैं। यजुर्वेद (मंत्र 7/48) का प्रमाण है कि प्रत्येक मनुष्य अपने किए कर्म भोगता है, किसी अन्य के नहीं।
अत: जरत्कारू के पितर जरत्कारू से संतान न उत्पन्न होने के कारण पुण्य लोक से भटक नहीं सकते। दूसरा यदि जरत्कारू ऋषि के पितर भी ऋषि हैं, तब तो वे ब्रह्मालीन हो गए, उन्हें दुख कैसे हो सकता है? और फिर जरत्कारू को विवाह की पुन: क्या आवश्यकता है? अथर्व वेद (मंत्र 4/30/3) के अनुसार पूर्ण संयमी पुरुष को ही ईश्वर स्वयं ऋषि पद देता है। अत: यह निश्चित है कि कोई भी ऋषि अनायास क्रोधित नहीं होता और साथ ही विदुषी नारी पर क्रोधादि करने का विचार भी नहीं कर सकता। अत: ऋषि जरत्कारू की उपरोक्त कथा वैदिक प्रमाण के आधार पर असत्य है। ऐसी अनेक असत्य कथाएं हमारे प्राचीन एवं वर्तमान ऋषि मुनियों को बदनाम करने और हमारी वैदिक संस्कृति को नष्ट करने के लिए लिखी गई हैं।

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