शनिवार, 26 दिसंबर 2009

श्रीमद् भागवत में शुकदेव जी कहते हैं

श्रीमद् भागवत में शुकदेव जी कहते हैं कि हवन-यज्ञ में देवताओं के नाम की आहुति दी जाती है। आहुति अर्थात देवताओं के नाम पुकार-पुकार कर उन्हें भेंट दी जाती है। यही बात शुकदेव जी 11वें स्कंध में समझा कर कहते हैं कि सबसे बड़ा यज्ञ है संकीर्तन महायज्ञ। इस कलियुग में संकीर्तन का ही विधान है।
वेद व्यास जी ने चार वेदों की रचना की, वेदांत सूत्र लिखा, 18 पुराण लिखे, महाभारत, गीता, इत्यादि भी लिखे। सनातन धर्म के ज्ञान का स्त्रोत ऋषि वेद व्यास हैं। वे जगत गुरु हैं। वही वेदव्यास जी हम कलियुग के जीवों के लिए बृहद् नारदीय पुराण में कहते हैं, हरि का नाम, हरि का नाम, हरि का नाम ही एकमात्र उपाय है। इसके अलावा इस कलिकाल में मनुष्य की उत्तम गति व परम कल्याण किसी भी अन्य प्रकार से नहीं हो सकता, नहीं हो सकता, नहीं हो सकता।
अपने सूत्र में उन्होंने अपनी बात को एक बार नहीं, दो बार नहीं, तीन बार दोहराया है। किसी बात को अगर कोई दोहराता है तो उसका अर्थ है कि वह उस बात को स्पष्ट रूप से समझा देना चाहता है।
{शास्त्र वचन है कि कलियुग में कहीं भी, कोई भी अनुष्ठान हो, वह संकीर्तन के बिना पूरा फल नहीं देगा। चाहे हम जितने भी व्रत करें, तीर्थ करें, यज्ञ करें। इस कलियुग में शांति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है हरिनाम संकीर्तन। }
भगवान चैतन्य महाप्रभु जी ने इसकी विधि इतनी सरल कर दी कि स्थान व समय आदि का कोई भी नियम नहीं रखा। हर पूजा का कोई ना कोई विधान होता है। हवन के लिए स्नान आवश्यक है, शुद्ध सामग्री आवश्यक है, मंत्रों का शुद्ध उच्चारण आवश्यक है। पर नाम संकीर्तन के लिए कुछ भी जरूरी नहीं है।
                                   भागवत में एक प्रसंग आता है कि एक बार एक यज्ञ अनुष्ठान हुआ। ब्राह्मणों ने इंद्र को मारने हेतु यज्ञ किया। इस प्रयोजन के साथ आहुति चलती रही कि इंद का शत्रु यज्ञ से प्रकट हो। यज्ञ में से असुर प्रकट हुआ- वृत्तासुर। उसे आदेश हुआ कि इंद्र का नाश कर दो। वह युद्ध करने गया, पर इंद्र के हाथों मारा गया।
                                         यज्ञ का आयोजन हुआ था कि इंद्र को मारने वाला प्रकट हो, पर यहां तो इंद्र से मरने वाला प्रकट हो गया। कारण था कि मंत्रोच्चार करते हुए 'इंद्र' शब्द धीरे बोल कर शत्रु ऊंचा बोलना था, जबकि बोलने वाले उलटा उच्चारण कर रहे थे। उलट उच्चारण का फल भी उलटा।
हरि नाम संकीर्तन में भगवान भावग्राही हैं, वे तो भक्त का भाव देखते हैं। जब नारद मुनि की रत्नाकर डाकू से भेंट हुई, तब नारद जी ने उसे बताया कि वह जो पाप कर रहा है, उसका फल उसे अकेले ही भोगना पड़ेगा। रत्नाकर ने कहा कि वह तो यह सब अपने परिवार वालों के लिए करता है, अत: वही अकेला क्यों, सारा परिवार मिल कर भोगेगा। नारद के कहने वह घर वालों से पूछने गया। लेकिन सबने यही कहा कि उसके किए पापों का फल वे भला क्यों भोगें?
                                  रत्नाकर की आंखें खुल गईं। वह वापस आया नारद जी से अपने कल्याण का उपाय पूछने लगा। नारद ने कहा कि 'हरिनाम' भजो। रत्नाकर 'राम' नाम जपने की चेष्टा करने लगा। पर इतने पाप किए थे कि अब मुख से राम नाम निकले ही नहीं। तब नारद जी ने पूछा कि क्या 'मरा-मरा' बोल सकते हो? रत्नाकर ने कहा, 'हां जी। अब तक वही तो करता आया हूं।' तब नारद जी ने कहा, ठीक है, आप 'मरा - मरा' ही जपो।
                                            रत्नाकर की 'मरा-मरा' जप कर ही सिद्धि हो गई। इतना सरल है भगवान का नाम लेना। भावना ठीक होनी चाहिए, बस। बिना नहाए-धोए भी आप हरिनाम कर सकते हैं। विश्राम गृह में या रसोई घर में, कहीं पर भी नाम जप हो सकता है। मन में करो तो भी ठीक। प्रह्लाद ने भी मन ही मन हरिनाम किया था। नाम जप कहीं पर भी, कैसे भी किया जा सकता है। इतनी सरल विधि जिसको करने से सब प्राप्त हो जाए, अगर हम इसे भी ना अपनाएं तो दोष किसका है?

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